रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
चौ.-भूमि सप्त सागर मेखला। एक भूप रघुपति कोसला।।
भुवन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू।।1।।
भुवन अनेक रोम प्रति जासू। यह प्रभुता कछु बहुत न तासू।।1।।
अयोध्या में श्रीरघुनाथजी सात समुद्रों की
मेखला (करधनी) वाली पृथ्वीके
एकमात्र राजा हैं। जिनके एक-एक रोम में अनेकों ब्रह्माण्ड हैं, उनके लिये
सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है।।1।।
सो महिमा समुझत प्रभु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी।।
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरि एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी।।2।।
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी। फिरि एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी।।2।।
बल्कि प्रभु की उस महिमाको समझ लेनेपर तो यह
कहने में [कि वे सात समुद्रों
से घिरी हुई सप्तद्वीपमयी पृथ्वीके एकच्छत्र सम्राट हैं] उनकी बड़ी हीनता
होती है। परंतु हे गरुड़जी ! जिन्होंने वह महिमा जान भी ली है, वे भी फिर
इस लीलामें बड़ा प्रेम मानते हैं।।2।।
सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर दमसीला।।
राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा।।3।।
राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा।।3।।
क्योंकि उस महिमा को जानने का फल यह लीला (इस
लीला का अनुभव) ही है,
इन्द्रियों का दमन करने वाले श्रेष्ठ महामुनि ऐसा कहते हैं। रामराज्यकी
सुखसम्पत्ति का वर्णन शेषजी और सरस्वती जी भी नहीं कर सकते।।3।।
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