रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 15
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड


आजु धन्य मैं सुनहु मुनीसा। तुम्हरें दरस जाहिं अघ खीसा।।
बड़े भाग पाइब सतसंगा। बिनहिं प्रयास होहिं भव भंगा।।4।।

हे मुनीश्वरों ! सुनिये, आज मैं धन्य हूँ। आपके दर्शनों ही से [सारे] पाप नष्ट हो जाते हैं। बड़े ही भाग्य से सत्संग की प्राप्ति होती है, जिससे बिना ही परिश्रम जन्म-मृत्यु का चक्र नष्ट हो जाता है।।4।।

दो.-संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुत्रि पुरान पदग्रंथ।।33।।

संतका संग मोक्ष (भव-बन्धनसे छूटने) का और कामीका संग जन्म-मृत्युके बन्धनमें पड़ने का मार्ग है। संत, कवि और पण्डित तथा वेद-पुराण [आदि] सभी सद्ग्रन्थ ऐसा कहते हैं।।33।।

चौ.-सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी।।
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय।।1।।

प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे-हे भगवान् आपकी जय हो। आप अन्तरहित, पापरहित अनेक (सब रूपोंमें प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं।।1।

जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर।।
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर।।2।।

हे निर्गुण ! आपकी जय हो। हे गुणों के समुद्र! आपकी जय हो, जय हो। आप सुख के धाम [अत्यन्त] सुन्दर और अति चतुर हैं। है लक्ष्मीपति ! आपकी जय हो। हे पृथ्वी के धारण करनेवाले ! आपकी जय हो। आप उपमारहित अजन्मा अनादि और शोभाकी खान हैं।।2।।

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