रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (उत्तरकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। सप्तम सोपान उत्तरकाण्ड
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद।।
तग्य कृतम्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।3।।
तग्य कृतम्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन।।3।।
आप ज्ञान के भण्डार, [स्वयं] मानरहित और
[दूसरों को] मान देनेवाले हैं।
वेद और पुराण आपका पावन सुन्दर यश गाते हैं। आप तत्त्व के जाननेवाले, की
हुई सेवा को मानने वाले और अज्ञान का नाश करने वाले हैं। हे निरंजन
(मायारहित) ! आपके अनेकों (अनन्त) नाम हैं और कोई नाम नहीं है (अर्थात् आप
सब नामों के परे हैं)।।3।।
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय।।
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।4।।
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।।4।।
आप सर्वरूप हैं, सबमें व्याप्त हैं और सब के
हृदयरूपी घरमें सदा निवास करते हैं; [अतः] आप हमारा परिपालन कीजिये।
[राग-द्वेष,अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि] द्वन्द्व, विपत्ति और
जन्म-मृत्यु के जाल को काट दीजिये। हे रामजी ! आप हमारे हृदय में बसकर काम
और मद का नाश कर दीजिये।।4।।
दो.-परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम।।34।।
आप परमानन्दस्वरूप कृपाके धाम और मनकी
कामनाओंको परिपूर्ण करनेवाले हैं।
हे श्रीरामजी ! हमको अपनी अविचल प्रेमा भक्ति दीजिये।।34।।
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