वेदान्त >> वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानस्वामी विवेकानन्द
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स्वामी जी द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन में वेदान्त पर दिये गये व्याख्यान
इससे ज्ञात होता है कि हमारे शरीर पर बाहरी कोई दूसरा पदार्थ कार्य कर सकता है। मान लो, मैंने विष खाया और मेरी मृत्यु हो गयी- तो इससे प्रमाणित होता है कि हमारे शरीर पर विष नामक एक बाहरी पदार्थ कार्य कर सकता है। यदि आत्मा के सम्बन्ध में यह सत्य हो कि वह मुक्त है, तो यह भी स्वभावतः ज्ञात होता है कि बाहरी कोई भी पदार्थ उस पर कार्य नहीं कर सकता। (इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि आत्मा के बाहर कुछ भी नहीं है, और जो कुछ भी है, वह सब इसके अंदर ही है, तब बाहर या भीतर इसका भेद आत्मा पर नहीं लगेगा) अतः आत्मा कभी मर नहीं सकती। आत्मा का मुक्तस्वभाव, उसका अमरत्व एवं उसका आनन्द-स्वभाव, सभी इस बात पर निर्भर है कि आत्मा कार्य-कारण-सम्बन्ध अर्थात् इस माया से अतीत है। अब इन दो पक्षों में से कौनसा पक्ष लोगे? या तो आत्मा के मुक्तस्वभाव को भ्रान्ति कहो या फिर उसके बद्ध भाव को भ्रान्ति कहकर स्वीकार करो। मैं तो निश्चय ही उसके बद्ध भाव को भ्रान्ति कहूँगा। यही मेरी समस्त भावनाओं और महत्वाकांक्षाओं के साथ मेल खाता है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मैं स्वभावतः मुक्त हूँ। मैं यह कभी नहीं मान सकता कि यह बद्ध भाव सत्य है और मेरा मुक्त भाव मिथ्या। (जब आप यह बात स्वतः जान जाते हैं तब उसे मानने की आवश्यकता अथवा प्रश्न ही नहीं रह जाता)
सभी दर्शनों में किसी न किसी रूप से यह विवाद चल रहा है, यहाँ तक कि, बिलकुल आधुनिक दर्शनों में भी उसने स्थान पा लिया है। दो दल हैं। एक दल कहता है कि आत्मा नामक कोई वस्तु नहीं है, वह केवल भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति का कारण है, जड-कणों का बारम्बार स्थान-परिवर्तन, जिससे यह समवाय, जिसे तुम शरीर, मस्तिष्क आदि नामों से पुकारते हो, उत्पन्न होता है। इन जड़-कणों के ही स्पन्दन में, उनकी गतिविशेष और उनके लगातार स्थान-परिवर्तन से यह मुक्तस्वभाव की धारणा आती है। (यहाँ शरीर के मुक्त होने की बात पर बल दिया गया है, जो कि मुक्ति समझने की अवस्था में पहला चरण है, इसके पश्चात् मन और बुद्धि की मुक्ति का प्रश्न उठता है) कुछ बौद्ध सम्प्रदाय भी इसका अनुमोदन करते थे। वे उदाहरण देते थे कि एक जलती मशाल लो, और उसे जोर से गोल गोल घुमाओ, तो एक वर्तुलाकार प्रकाश दिखाई पड़ेगा। वस्तुतः प्रकाश के इस चक्र का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि यह मशाल प्रत्येक क्षण स्थान-परिवर्तन कर रही है। उसी तरह हम भी छोटे छोटे परमाणुओं की समष्टि मात्र हैं, इन परमाणुओं के जोर से घूमने से यह 'अहं'-भ्रान्ति उत्पन्न होती है। अतएव एक मत यह हुआ कि शरीर सत्य है, आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। दूसरा दल कहता है कि विचारशक्ति के द्रुत स्पन्दन से जड़-रूप भ्रान्ति की उत्पत्ति होती है, वस्तुतः जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तर्क आज तक चल रहा है- एक दल कहता है, आत्मा भ्रम है और दूसरा जड़ को भ्रम कहता है। तुम कौन सा मत अपनाओगे? हम तो निश्चय ही आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारकर जड़ को भ्रमात्मक कहेंगे। युक्ति दोनों ओर बराबर है। केवल आत्मा के निरपेक्ष अस्तित्व को प्रमाणित करनेवाली युक्ति अपेक्षाकृत प्रबल है; क्योंकि जड़ क्या है यह किसी ने देखा नहीं। हम केवल स्वयं को अनुभव कर सकते हैं। मैंने ऐसा मनुष्य नहीं देखा, जिसने स्वयं के बाहर जाकर जड़ का अनुभव किया हो। अभी तक कोई भी कूदकर अपनी आत्मा के बाहर नहीं जा सका। अतएव आत्मा के पक्ष में युक्ति कुछ दृढ़तर हुई। द्वितीयतः आत्मवाद जगत् की सुन्दर व्याख्या कर सकता है, पर जड़वाद नहीं। अतएव जड़वाद के द्वारा जगत् की व्याख्या अयौक्तिक है।
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