हम देखते हैं कि इस
प्राचीनतम प्रश्न के कई
अंगों का उत्तर पहले से ही उपलब्ध था। प्रथम तो -- "जब सत् और असत् कुछ
भी
नहीं था" इस प्राचीन वैदिक वाक्य से प्रमाणित होता है कि एक समय ऐसा था,
जब जगत् नहीं था, जब ये
ग्रह-नक्षत्र, हमारी धरती माता, सागर, महासागर,
नदी, शैलमाला, नगर,
ग्राम, मानवजाति, अन्य
प्राणी, उद्भिद्, पक्षी,
यह अनन्त प्रकार की सृष्टि, यह
सब कुछ भी नहीं था-
यह बात पहले से ही मालूम थी। क्या हम इस विषय में निःसन्देह हैं?
यह सिद्धान्त किस प्रकार प्राप्त हुआ यह समझने की हम
चेष्टा करेंगे।
मनुष्य अपने चारों ओर क्या देखता है? एक छोटे
से उद्भिद् को
ही लो। मनुष्य देखता है कि उद्भिद् धीरे-धीरे मिट्टी को फोड़कर उठता है,
अन्त में बढ़ते-बढ़ते एक विशाल वृक्ष हो जाता है,
फिर
वह नष्ट हो जाता है केवल बीज छोड़ जाता है। वह मानो घूम-फिरकर एक वृत्त
पूरा करता
है। बीज से ही वह निकलता है, फिर वृक्ष हो
जाता है और उसके
बाद फिर बीज में ही परिणत हो जाता है। पक्षी को देखो, किस
प्रकार
वह अण्डे में से निकलता है, सुन्दर पक्षी का
रूप धारण
करता है, कुछ दिन जीवित रहता है, अन्त
में मर जाता है, और छोड़ जाता है अन्य कई
अण्डे अर्थात् भावी
पक्षियों के बीज। तिर्यग्जातियों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार होता है
और मनुष्य
के सम्बन्ध में भी। प्रत्येक पदार्थ मानो किसी बीज से, किसी
मूल
उपादान से, किसी सूक्ष्म आकार से आरम्भ होता
है और स्थूल
से स्थूलतर होता जाता है। कुछ समय तक ऐसा ही चलता है, और
अन्त
में फिर से उसी सूक्ष्म रूप में उसका लय हो जाता है। वृष्टि की एक बूंद,
जिसमें अभी सुन्दर सूर्य-किरणें खेल रही हैं, सागर
से वाष्प के रूप में निकलकर ऐसे क्षेत्र में पहुँचती है, जहाँ
वह पानी में परिणत हो जाती है, और फिर वाष्प
के रूप में पुनः
परिणत होने के लिए समुद्र में पानी के रूप में आ गिरती है। हमारे चारों
ओर स्थित
प्रकृति की सारी वस्तुओं के सम्बन्ध में भी यही नियम है। हम जानते हैं
कि आज बर्फ
की चट्टानें और नदियाँ बड़े-बड़े पर्वतों पर कार्य कर रही हैं और
उन्हें धीरे-धीरे,
परन्तु निश्चित रूप से, चूर-चूर
कर रही हैं,
चूर-चूर कर उन्हें बालू कर रही हैं। फिर वही बालू बहकर
समुद्र में
जाती है- समुद्र में स्तर पर स्तर जमती जाती है और अन्त में पहाड़ की
भाँति कड़ी
होकर भविष्य में पर्वत बन जाती है। वह पर्वत फिर से पिसकर बालू बन
जाएगा- बस यही
क्रम है। बालुका से इन पर्वतमालाओं की उत्पत्ति है और बालुका में ही
इनकी परिणति
है। यही मनुष्य का, प्रकृति का, जीवन
का पूरा इतिहास है।
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