इस समस्त 'क्रमविकासशील' जीवनप्रवाह
की शृंखला को, जिसका एक छोर जीविसार है और
दूसरा पूर्ण-मानव,
एक ही वस्तु के रूप में लो। यह सम्पूर्ण श्रेणी एक ही
जीवन है इस
श्रेणी के अन्त में हम पूर्ण-मानव को देखते हैं, अतएव
आदि
में भी वह होगा ही- यह निश्चित है। अतएव यह जीविसार अवश्य उच्चतम
बुद्धि की
क्रमसंकुचित अवस्था है। तुम इसको स्पष्ट रूप से भले ही न देख सको,
पर वास्तव में वह क्रमसंकुचित बुद्धि ही अपने को व्यक्त
कर रही है और इसी
प्रकार अपने को व्यक्त करती रहेगी, जब तक वह
पूर्णतम मानव के
रूप में व्यक्त नहीं हो जाएगी। यह तत्त्व गणित के द्वारा निश्चित रूप
से प्रमाणित
किया जा सकता है। यदि ऊर्जासंधारणवाद (law of conservation of
energy) सत्य हो, तो यह अवश्य
मानना पडेगा कि यदि तम किसी
मशीन में पहले कुछ न डालो, तो उससे तुम कोई
शक्ति प्राप्त न
कर सकोगे। इंजन में पानी और कोयले के रूप में जितनी शक्ति डालोगे,
ठीक उसी परिमाण में तुम्हें उसमें से शक्ति मिल सकती है,
उससे थोड़ी सी भी कम या अधिक नहीं। मैंने अपनी देह में
वायु, खाद्य और अन्यान्य पदार्थों के रूप में
जितनी शक्ति का प्रयोग किया है,
बस, उतने ही परिमाण में मैं
कार्य करने में
समर्थ होऊँगा। ये शक्तियाँ अपना रूप मात्र बदल लेती हैं। इस
विश्व-ब्रह्माण्ड में
हम जड़ तत्त्व का एक परमाणु या शक्ति का एक क्षुद्र अंश भी घटा-बढ़ा
नहीं सकते।
यदि ऐसा हो, तो फिर यह बुद्धि है क्या चीज?
यदि वह जीविसार में वर्तमान न हो, तो
यह मानना
पड़ेगा कि उसकी उत्पत्ति अवश्य आकस्मिक है- तब तो, साथ
ही,
हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि असत् (कुछ नहीं) से सत्
(कुछ) की
उत्पत्ति होती है। पर यह बिलकुल असम्भव है। अतएव यह बात निस्सन्दिग्ध
रूप से
प्रमाणित होती है कि–जैसा हम अन्यान्य विषयों में देखते हैं–जहाँ से
आरम्भ होता है,
अन्त भी वहीं होता है; पर हाँ,
कभी वह अव्यक्त रहता है और–कभी व्यक्त। बस, इसी
प्रकार वह पूर्ण-मानव, मुक्त-पुरुष, देव-मानव
जो प्रकृति के नियमों से बाहर चला गया है, जो
सब के अतीत हो
गया है, जिसे इस जन्म-मृत्यु के चक्र में पुनः
नहीं घूमना
पड़ता, जिसे ईसाई ईसा-मानव, बौद्ध
बुद्ध-मानव
और योगी मुक्त-पुरुष कहते हैं- इस शृंखला का एक छोर है और वही
क्रमसंकुचित होकर उसके दूसरे छोर में जीविसार के रूप में वर्तमान है।
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