वेदान्त >> वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :602
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7
आईएसबीएन :1234567890

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स्वामी जी द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन में वेदान्त पर दिये गये व्याख्यान

इस सिद्धान्त को समग्र जगत् पर लागू करने से हम देखते हैं कि बुद्धि ही सृष्टि की प्रभु है, जगत् के विषय में मानव की चरम धारणा क्या हो सकती है? वह है बुद्धि, बुद्धि की अभिव्यक्ति जगत् के एक भाग का दूसरे भाग से समायोजन। प्राचीन सृष्टि-रचनावाद (design theory) इसी की अभिव्यक्ति का एक प्रयास है। हम जड़वादियों के साथ यह मानने को तैयार हैं कि बुद्धि ही जगत् की अन्तिम वस्तु है–सृष्टिक्रम में यही अन्तिम विकास है, पर साथ ही हम यह भी कह सकते हैं कि यदि यह अन्तिम विकास हो, तो आरम्भ में भी यही वर्तमान थी। जड़वादी कह सकते हैं, 'अच्छा, ठीक है, पर मनुष्य के जन्म के पहले तो लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, उस समय तो बुद्धि का कोई अस्तित्व न था।' इस पर हमारा उत्तर है- हाँ, व्यक्त रूप में बुद्धि नहीं थी, लेकिन अव्यक्त रूप में यह अवश्य विद्यमान थी, और यह तो एक मानी हुई बात है कि पूर्ण-मानव रूप में प्रकाशित बुद्धि ही सृष्टि का अन्त है। तो फिर आदि क्या होगा? आदि भी बुद्धि ही होगी। पहले वह बुद्धि क्रमसंकुचित होती है, अन्त में वही फिर क्रमविकसित होती है। अतएव इस जगत्-ब्रह्माण्ड में जो बुद्धि अब अभिव्यक्त हो रही है, उसकी समष्टि अवश्य उस क्रमसंकुचित, सर्वव्यापी बुद्धि की ही अभिव्यक्ति है। इसी सर्वव्यापी, विश्वजनीन बुद्धि का नाम है ईश्वर, उसको फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो, इतना तो निश्चित है कि आदि में वही अनन्त विश्वव्यापी बुद्धि थी (बुद्धि अर्थात् ज्ञान की अभिव्यक्ति, यह अलग-अलग स्तर पर इस जगत् में अभिव्यक्त हो रही है)। वह विश्वजनीन बुद्धि क्रमसंकुचित हुई थी, और वही अपने को क्रमशः अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण-मानव या ईसा-मानव या बुद्ध-मानव में परिणत नहीं हो जाती। तब वह फिर से अपने उत्पत्ति-स्थान में लौट जाएगी।

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