वेदान्त >> वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :602
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7
आईएसबीएन :1234567890

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स्वामी जी द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन में वेदान्त पर दिये गये व्याख्यान

किन्तु अमृतत्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न था; वह अब भी नहीं सुलझा। हमने देखा कि जगत् के किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता। नूतन कुछ भी नहीं है और होगा भी नहीं। अभिव्यक्ति की एक ही शृंखला चक्र की भाँति बारम्बार उपस्थित होती रहती है। जगत् में जितनी गति है; वह समस्त तरंग के आकार में एक बार उठती है, फिर गिरती है। विविध ब्रह्माण्ड सूक्ष्मतर रूपों से प्रसूत हो रहे हैं–स्थूल रूप धारण कर रहे हैं। फिर लीन होकर सूक्ष्म भाव में जा रहे हैं। वे फिर से इस सूक्ष्म भाव से स्थूल भाव में आते हैं- कुछ समय तक उसी अवस्था में रहते हैं और पुनः धीरे-धीरे उस कारण में चले जाते हैं। ऐसा ही जीवन के सम्बन्ध में सत्य है। जीवन की प्रत्येक अभिव्यक्ति आती है और फिर चली जाती है। तो फिर नष्ट क्या होता है? केवल रूप और आकृति। वह रूप नष्ट हो जाता है, किन्तु फिर आता है। एक अर्थ में तो सभी शरीर और सभी रूप नित्य हैं। कैसे? मान लो, मैं पासा खेल रहा हूँ और वे ६-५-३-४ के अनुपात से पड़े। मैं और खेलने लगा। खेलते-खेलते एक समय ऐसा अवश्य आएगा, जब वही संख्याएँ फिर से पड़ेंगी। और खेलो, वही संयोग पुनः अवश्य आएगा। मैं इस जगत् के प्रत्येक कण, प्रत्येक परमाणु की एक-एक पासे से तुलना करता हूँ। उन्हीं को बार-बार फेंका जा रहा है, और वे बार-बार नाना प्रकार से गिरते हैं। तुम्हारे सम्मुख जो सारे पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के एक विशिष्ट प्रकार के संघात से उत्पन्न हुए हैं। यह गिलास, यह मेज, यह सुराही, ये सभी वस्तुएँ परमाणुओं के समवाय-विशेष हैं–क्षण भर के बाद शायद ये समवाय-विशेष नष्ट हो जा सकते हैं। पर एक समय ऐसा अवश्य आएगा, जब ठीक यही समवाय पुनः उपस्थित होगा–जब तुम सब इसी तरह बैठे होंगे और यह सुराही तथा अन्य सभी वस्तुएँ ठीक अपने अपने स्थान पर रहेंगी और ठीक इसी विषय की आलोचना होगी। अनन्त बार इस प्रकार हुआ है और अनन्त-बार इसकी आवृत्ति होगी। तो फिर हमने स्थूल, बाह्य वस्तुओं की आलोचना से क्या तत्त्व पाया? यही कि इन भौतिक रूपों के विभिन्न समवायों की पुनरावृत्ति अनन्त काल होती रहती है। इस परिकल्पना से जो एक अन्यतम मनोरंजक निष्कर्ष निकलता है, वह है इस प्रकार के तथ्यों की व्याख्या–शायद तुममें से कुछ लोगों ने ऐसा व्यक्ति देखा होगा, जो मनुष्य के अतीत एवं भविष्य की सारी बातें बतला देता है। यदि भविष्य किसी नियम के अधीन न हो तो फिर किस प्रकार भविष्य के सम्बन्ध में बताया जा सकता है? अतीत के कार्य भविष्य में घटित होंगे, और हम देखते हैं कि ऐसा होता है। हिंडोले का उदाहरण लो। वह लगातार घूमता रहता है। लोग आते हैं और उसके एक-एक पालने में बैठ जाते हैं। हिंडोला घूमकर फिर नीचे आता है। वे उतर जाते हैं, तो एक दूसरा दल आ बैठता है। क्षुद्रतम जन्तु से लेकर उच्चतम मानव तक प्रकृति की प्रत्येक अभिव्यक्ति मानो ऐसा एक-एक दल है, और प्रकृति हिंडोले के चक्र सदृश है तथा प्रत्येक शरीर या रूप इस हिंडोले के एक-एक पालने जैसा है। नयी आत्माओं (जीवों) का एक-एक दल उन पर चढ़ता है और ऊँचे से ऊँचे जाता रहता है, जब तक उसमें से प्रत्येक पूर्णता प्राप्त कर हिंडोले से बाहर नहीं आ जाती। पर हिंडोला निरन्तर चलता रहता है–हमेशा दूसरे लोगों को ग्रहण करने के लिए तैयार है। और जब तक शरीर इस चक्र के भीतर अवस्थित है, तब तक निश्चित रूप से, गणित के हिसाब से, यह भविष्यवाणी जा सकती है कि अब वह किस ओर जाएगा। किन्तु आत्मा के बारे में यह नहीं कहा जा सकता। अतएव प्रकृति के भूत और भविष्य निश्चित रूप से, गणित की तरह ठीक-ठीक बतलाना असम्भव नहीं है। अतः हम देखते हैं कि उन्हीं भौतिक घटनाओं की पुनरावृत्ति निश्चित समयों पर होती रहती है, और वही संयोजन चिरन्तन काल से होते चले आ रहे हैं। किन्तु यह आत्मा का अमरत्व नहीं है। किसी भी शक्ति का नाश नहीं होता, कोई भी जड़ वस्तु शून्य में पर्यवसित नहीं की जा सकती। तो फिर उनका क्या होता है? उनके आगे और पीछे परिणाम होते रहते हैं, और अन्त में जहाँ से उनकी उत्पत्ति हुई थी, वहीं वे लौट जाते हैं। सीधी रेखा में कोई गति नहीं होती। प्रत्येक वस्तु घूम-फिरकर अपने पूर्वस्थान पर लौट आती है, क्योंकि सीधी रेखा अनन्त भाव से बढ़ा दी जाने पर वृत्त में परिणत हो जाती है। यदि ऐसा ही हो, तो फिर अनन्त काल तक किसी भी आत्मा का अधःपतन नहीं हो सकता वैसा हो नहीं सकता। इस जगत् में प्रत्येक वस्तु, शीघ्र हो या विलम्ब से, अपनी-अपनी वर्तुलाकार गति को पूरा कर फिर अपनी उत्पत्ति स्थान पर पहुँच जाती है। तुम, मैं अथवा ये सब आत्माएँ क्या हैं? पहले क्रमसंकोच तथा क्रमविकास-तत्त्व की आलोचना करते हुए हमने देखा है कि तुम, हम उसी विराट् विश्वव्यापी चैतन्य या प्राण या मन के अंशविशेष हैं, जो हममें संकुचित या अव्यक्त हुआ है, और हम घूमकर, क्रमविकास की प्रक्रिया के अनुसार, उस विश्वव्यापी चैतन्य में लौट जाएँगे–और यह विश्वव्यापी चैतन्य ही ईश्वर है। लोग उसी विश्वव्यापी चैतन्य को प्रभु, भगवान्, ईसा, बुद्ध या ब्रह्म कहते हैं- जड़वादी उसी की शक्ति के रूप में उपलब्धि करते हैं, एवं अज्ञेयवादी उसी की उस अनन्त अनिर्वचनीय सर्वातीत पदार्थ के रूप में धारणा करते हैं और हम सब उसी के अंश हैं।

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