यह दूसरा तथ्य हुआ,
फिर भी अनेक शंकाएँ की जा सकती हैं। किसी शक्ति का नाश
नहीं है, यह बात सुनने में तो बड़ी अच्छी लगती
है, पर हम
जितनी भी शक्तियाँ और रूप देखते हैं, सभी
मिश्रण हैं। हमारे
सम्मुख यह रूप अनेक खण्डों का समन्वय है, इसी
प्रकार
प्रत्येक शक्ति अनेक शक्तियों का समवाय है। यदि तुम शक्ति के सम्बन्ध
में विज्ञान
का मत ग्रहण कर उसे कतिपय शक्तियों की समष्टि मात्र मानते हो तो फिर
तुम्हारे 'मैं-पन', व्यक्तित्व
का क्या होता है ? जो कुछ समवाय या संघात है,
वह शीघ्र अथवा विलम्ब से
अपने कारणीभूत पदार्थ में लीन हो जाता है। इस विश्व में जो भी जड़ अथवा
शक्ति के
समवाय से उत्पन्न है, वह अपने अंशों में
पर्यवसित हो जाता है।
शीघ या विलम्ब से, वह अवश्य विश्लिष्ट हो
जाएगा, भग्न हो जाएगा और अपने कारणीभूत अंशों
में परिणत हो जाएगा। आत्मा भौतिक
शक्ति अथवा विचारशक्ति नहीं है। वह तो विचारशक्ति की स्रष्टा है,
स्वयं विचारशक्ति नहीं। वह शरीर की रचयित्री है,
किन्तु
वह स्वयं शरीर नहीं है। क्यों? शरीर कभी आत्मा
नहीं हो सकता,
क्योंकि वह बुद्धियुक्त नहीं है। शव अथवा कसाई की दुकान
का मांस का
टुकड़ा कभी बुद्धियुक्त नहीं है। हम 'बुद्धि'
शब्द से क्या समझते हैं? प्रतिक्रिया-शक्ति।
थोड़े
और गम्भीर भाव से इस तत्त्व की आलोचना करो। मैं अपने सम्मुख यह सुराही
देख रहा हूँ।
यहाँ पर क्या हो रहा है? इस सुराही से कुछ
प्रकाश-किरणें
निकलकर मेरी आँख में प्रवेश करती हैं। वे मेरे नेत्रपटल (retina)
पर एक चित्र अंकित करती हैं। और यह चित्र जाकर मेरे
मस्तिष्क में पहुँचता
है। शरीरवैज्ञानिक जिसको संवेदक नाड़ी (sensory rerves) कहते
हैं, उन्हीं के द्वारा यह चित्र भीतर मस्तिष्क
में ले जाया
जाता है। किन्तु तब भी देखने की क्रिया पूरी नहीं होती, क्योंकि
अभी तक भीतर की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मस्तिष्क में स्थित जो
स्नायु-केन्द्र है, वह इस चित्र को मन के पास
ले जाएगा,
और मन उस पर प्रतिक्रिया करेगा। इस प्रतिक्रिया के होते
ही सुराही
मेरे सम्मुख प्रकाशित हो जाएगी। एक और अधिक सरल उदाहरण लो। मान लो,
तुम खूब एकाग्र होकर मेरी बात सुन रहे हो और इसी समय एक
मच्छर तुम्हारी
नाक पर काटता है, किन्तु तुम मेरी बातें सुनने
में इतने
तन्मय हो कि उसका काटना तुमको अनुभव नहीं होता। ऐसा क्यों? मच्छर
तुम्हारे चमड़े को काट रहा है , उस स्थान पर
कितनी ही
नाड़ियाँ हैं, और वे इस संवाद को मस्तिष्क के
पास पहुँचा भी
रही हैं, इसका चित्र भी मस्तिष्क में मौजूद है,
किन्तु मन (चेतना
का
केंद्र बिन्दु) दूसरी ओर लगा है, इसलिए
वह
प्रतिक्रिया नहीं करता, अतएव तुम उसके काटने
का अनुभव नहीं
करते। हमारे सामने कोई नया चित्र आने पर यदि मन प्रतिक्रिया न करे,
तो हम उसके सम्बन्ध में कुछ जान ही न सकेंगे। किन्तु
प्रतिक्रिया होते ही
उसका ज्ञान होगा और तभी हम देखने, सुनने और
अनुभव आदि करने
में समर्थ होंगे। इस प्रतिक्रिया के साथ-साथ ही, जैसा
सांख्यवादी
कहते हैं, ज्ञान का प्रकाश होता है। अतएव हम
देखते हैं कि शरीर कभी ज्ञान का प्रकाश नहीं कर सकता, क्योंकि
जिस
समय मनोयोग नहीं रहता, उस समय हम अनुभव नहीं
कर पाते।
ऐसी घटनाएँ सुनी गयी हैं कि किसी- किसी विशेष अवस्था में एक व्यक्ति
ऐसी भाषा
बोलने में समर्थ हुआ है, जो उसने कभी नहीं
सीखी। बाद में
खोजने पर पता लगता है कि वह व्यक्ति बचपन में ऐसी जाति में रहा है,
जो वह भाषा बोलती थी, और वही
संस्कार उसके मस्तिष्क
में रह गया। वह सब वहाँ पर संचित था, बाद में
किसी कारण से
उसके मन में प्रतिक्रिया हुई और त्योंही ज्ञान आ गया और वह व्यक्ति वह
भाषा बोलने
में समर्थ हुआ। इससे मालूम पड़ता है कि केवल मन ही पर्याप्त नहीं है,
मन भी
किसी के हाथ में
यन्त्र मात्र है,
उस व्यक्ति की बाल्यावस्था में उसके मन में वह भाषा गूढ़
रूप से
निहित थी, किन्तु वह उसे नहीं जानता था,
पर बाद में एक ऐसा समय आया, जब
वह उसे जान सका। इससे
यही प्रमाणित होता है कि मन के अतिरिक्त और भी कोई है–उस व्यक्ति के
बाल्यकाल में
इस ‘और कोई’ ने उस
शक्ति का उपयोग नहीं
किया, किन्तु जब वह बड़ा हुआ, तब
उसने
उस शक्ति का उपयोग किया। पहले है यह शरीर, उसके
बाद है मन
अर्थात् विचार का यन्त्र, और फिर है इस मन के
पीछे विद्यमान
वह आत्मा। आधुनिक दार्शनिक लोग विचार को मस्तिष्क में स्थित परमाणुओं
के विभिन्न
प्रकार के परिवर्तन के साथ अभिन्न मानते हैं, अतएव
वे ऊपर
कही हुई घटनावली की व्याख्या नहीं कर पाते , इसीलिए
वे
साधारणतः इन सब बातों को बिलकुल अस्वीकार कर देते हैं। जो हो, मन के साथ मस्तिष्क का विशेष सम्बन्ध है और शरीर का विनाश
होने पर वह नष्ट
हो जाता है।
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