" किन्तु निर्दोष, तर्कसंगत
सिद्धान्त पर पहुँचने के लिए हमें एक कदम और बढ़ना होगा। मार्ग के बीच
में रुकना
नहीं है। तुम दार्शनिक हो, तुम्हारे लिए बीच
में रुकना शोभा
नहीं देता। हाँ, तो यदि हम नियम के बाहर हैं,
तो निश्चय ही हम सर्वज्ञ हैं, नित्यानन्दस्वरूप
हैं,
निश्चय ही सभी ज्ञान, सभी शक्ति
और सर्वविध
कल्याण हमारे अन्दर ही हैं। अवश्य, तुम सभी
सर्वज्ञ और
सर्वव्यापी हो। परन्तु इस प्रकार की सत्ता या पुरुष क्या एक से अधिक हो
सकते हैं?
क्या लाखों-करोड़ों पुरुष (हाड़-मांस से बने, विविध मन
और बुद्धि
वाले) सर्वव्यापक हो सकते हैं? कभी नहीं। तब
फिर हम सब का
क्या होगा: वास्तव में केवल एक ही है, एक ही
आत्मा है और तुम
सब वह एक आत्मा ही हो। इस तुच्छ प्रकृति के पीछे वह आत्मा ही विराजमान
है। एक ही
पुरुष है- वही एकमात्र सत्ता है, वह सदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ,
जन्मरहित और मृत्युहीन है।
“उसी की
आज्ञा से आकाश फैला हुआ है, उसी की आज्ञा से
वायु बह रही है,
सूर्य चमक रहा है, सब जीवित है।
वही प्रकृति
का आधारस्वरूप है, प्रकृति उस सत्यस्वरूप पर
प्रतिष्ठित होने
के कारण ही सत्य प्रतीत होती है। वह तुम्हारी आत्मा की भी आत्मा है।
यही नहीं,
तुम स्वयं ही वह हो, तुम और वह
एक ही हैं।'
जहाँ कहीं भी दो हैं, वहीं भय
है, खतरा है, वहीं
द्वन्द्व और संघर्ष है। जब सब एक ही
है, तो किससे घृणा, किससे
संघर्ष?
जब सब कुछ वही है, तो तुम किससे
लड़ोगे?
जीवन-समस्या की वास्तविक मीमांसा यही है, इसी से वस्तु
के स्वरूप की
व्याख्या होती है। यही सिद्धि या पूर्णत्व है और यही ईश्वर है। जब तक
तुम अनेक
देखते हो, तब तक तुम अज्ञान में हो। “इस
बहुत्वपूर्ण जगत्
में जो उस एक को, इस परिवर्तनशील जगत् में जो
उस
अपरिवर्तनशील को अपनी आत्मा(सूक्ष्म
शरीर) की आत्मा
(परमात्मा)
के रूप में
देखता है, अपना स्वरूप समझता है, वही
मुक्त है, वही आनन्दमय है, उसी
ने लक्ष्य
की प्राप्ति की है।" अतएव जान लो कि तुम्हीं वह हो, तुम्हीं
जगत
के ईश्वर हो–'तत्त्वमसि'।
ये
धारणाएँ कि मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ,
रोगी हूँ, स्वस्थ हूँ ,
बलवान
हूँ , निर्बल हूँ अथवा यह कि मैं घृणा करता
हूँ, मैं प्रेम करता हूँ, अथवा
मेरे पास इतनी शक्ति है–सब
भ्रम (अर्थात् मिथ्या) मात्र हैं। इनको छोड़ो। तुम्हें कौन दुर्बल बना
सकता है?
तुम्हें (तुम्हारे अंदर व्याप्त परमात्मा को) कौन भयभीत
कर सकता है?
जगत् में तुम्हीं तो एकमात्र सत्ता हो। तुम्हें किसका भय
है?
अतएव उठो, मुक्त हो जाओ। जान लो
कि जो कोई
विचार या शब्द तुम्हें दुर्बल बनाता है, एकमात्र
वही अशुभ है।
मनुष्य को दुर्बल और भयभीत बनाने वाला संसार में जो कुछ है, वही
पाप है और उसी से बचना चाहिए। तुम्हें कौन भयभीत कर सकता है? यदि सैकड़ों सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ें, सैकड़ों
चन्द्र
चूर-चूर हो जाएँ, एक के बाद एक ब्रह्माण्ड
विनष्ट
होते चले जाएँ, तो भी तुम्हारे लिए क्या?
पर्वत की भाँति अटल रहो , तुम
अविनाशी हो। तुम आत्मा
हो, तुम्ही जगत् के ईश्वर हो। कहो "शिवोऽहं,
शिवोऽहं , मैं पूर्ण
सच्चिदानन्द हूँ।'' पिंजड़े को तोड़ डालने
वाले सिंह की भाँति तुम अपने बन्धन तोड़कर सदा के
लिए मुक्त हो जाओ। तुम्हें किसका भय है, तुम्हें
कौन बाँधकर
रख सकता है?- केवल अज्ञान और भ्रम; अन्य
कुछ भी तुम्हें बाँध नहीं सकता। तुम शुद्धस्वरूप हो, नित्यानन्दमय
हो।
...Prev | Next...