मानव-शरीर में आत्मा का ही
एकमात्र अस्तित्व है
और यह आत्मा चेतन है। चूँकि यह चेतन है, इसलिए
यह
यौगिक नहीं हो सकती। और चूँकि यह यौगिक नहीं है, इसलिए
इस पर
कार्य-कारण का नियम नहीं लागू हो सकता। अतः यह अमर है। जो अमर है,
उसका कोई आदि नहीं हो सकता, क्योंकि
जिस वस्तु का
आदि होता है, उसका अन्त भी सम्भव है। इससे यह
भी सिद्ध होता
है कि उसका कोई रूपाकार नहीं है, कोई रूप
भौतिक द्रव्यों के
बिना सम्भव नहीं। जिस वस्तु का कोई रूपाकार होगा, उसका
आदि
और अन्त भी होगा ही। हम लोगों में से किसी ने कभी ऐसी वस्तु नहीं देखी,
जिसका आकार तो हो, पर आदि और
अन्त न हो। रूपाकार की
सृष्टि शक्ति एवं भौतिक द्रव्य के संयोग से होती है। इस कुर्सी का एक
विशिष्ट आकार
है अर्थात् एक निश्चित परिमाण वाले भौतिक द्रव्य पर कुछ शक्तियों ने इस
प्रकार काम
किया कि इसका यह रूप बन गया है। आकार शक्ति एवं भौतिक द्रव्य के संयोग
का परिणाम
है। पर कोई भी संयोग अनन्त नहीं होता। कभी न कभी उसका विघटन होता ही
है। इस तरह यह
सिद्ध होता है कि हर रूप का आदि और अन्त है। हम जानते हैं कि हमारा यह
शरीर एक न
एक दिन नष्ट होगा। इसका जन्म हुआ है, इसलिए
मरण भी होगा ही।
किन्तु आत्मा का कोई रूप नहीं है, इसलिए वह
आदि और अन्त से
परे है। इसका अस्तित्व अनादि काल से है। जैसे काल शाश्वत है, वैसे ही मनुष्य की आत्मा भी शाश्वत है। फिर, यह
अवश्य
ही सर्वव्यापक होगी। केवल उन्हीं वस्तुओं का विस्तार सीमित होता है,
जिनका कोई रूप होता है। जिसका कोई रूप ही नहीं, उसके
विस्तार की क्या सीमा है? इसलिए अद्वैत
वेदान्त के अनुसार
आत्मा, जो मुझमें, तुममें,
सब में है, सर्वव्यापक है। और
जब ऐसी ही बात है,
तब तो सूर्य में, पृथ्वी पर,
अमेरिका में, इंग्लैन्ड में हर
जगह तुम सामान्य रूप
से वर्तमान हो। किन्तु आत्मा, शरीर और मन के
माध्यम से ही
काम करती है। अतः जहाँ शरीर और मन है, वहीं
उसका कार्य
दृष्टिगोचर होता है।
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