हमारा
हर कार्य, जो हम करते हैं,
हर विचार, जो हम सोचते हैं,
मन
पर एक छाप छोड़ जाता है, जिसे संस्कृत में 'संस्कार' कहते हैं। ये सभी संस्कार
मिल-जुलकर एक ऐसी
महती शक्ति का रूप लेते हैं, जिसे 'चरित्र'
कहते हैं। उसने अपने
आप के लिए जिसका
निर्माण किया है, वही उस मनुष्य का
चरित्र है;
यह मानसिक एवं दैहिक क्रियाओं का परिणाम है, जिन्हें
उसने अपने जीवन में किया है। संस्कारों की समष्टि वह शक्ति है,
जिससे यह निश्चित होता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य किस
दिशा में जाएगा।
मनुष्य के मरने पर उसका शरीर तत्त्वों में मिल जाता है। किन्तु संस्कार
मन में
संलग्न रहते हैं और चूँकि मन शरीर की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म तत्त्वों से
बना होता
है, इसलिए विघटित नहीं होता। क्योंकि भौतिक
द्रव्य जितना ही
सूक्ष्मतर होता है, उतना ही दृढ़तर होता है!
अन्ततोगत्वा मन
भी विघटित होता है। हम सभी उसी विघटन की स्थिति के लिए, प्रयत्न
कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में सब से अच्छा उदाहरण, जो
मेरे मन
में अभी आ रहा है, चक्रवात का है। विभिन्न
वायु-तरंगें
विभिन्न दिशाओं से आकर मिलती हैं और एकाकार होकर मिलन-बिन्दु में वे
संघटित हो
जाती हैं तथा चक्र बनाती जाती हैं। चक्राकार स्थिति में वे धूलिकण,
कागज के टुकड़े आदि नाना पदार्थों का एक रूप बना लेती
हैं, जिन्हें बाद में गिराकर वे पुनः किसी
दूसरे स्थान पर जाकर यही क्रम फिर
रचती हैं। ठीक इसी प्रकार वे शक्तियाँ, जिन्हें
संस्कृत में 'प्राण' कहते
हैं, परस्पर मिलकर
भौतिक पदार्थों के संयोग से मन तथा शरीर की रचना करती हैं। चक्रवात की
तरह ही वे
कुछ समय में इन पदार्थों को गिराकर अन्यत्र यही कार्य पुनः करती हुई
आगे बढ़ती
जाती हैं। किन्तु पदार्थ के बिना शक्ति की कोई गति नहीं, इसलिए
जब शरीर छूट जाता है, मनस्तत्त्व रह जाता है,
और इसमें संस्कारों के रूप में प्राण कार्य करते हैं।
किसी दूसरे बिन्दु
पर जाकर ये पुनः नये पदार्थों का चक्र खड़ा करते हैं। इस तरह ये तब तक
भ्रमण करते
रहते हैं, जब तक संस्काररूपी शक्तियों का
पूर्णतः क्षय नहीं
हो जाता। सम्पूर्ण संस्कारों के साथ जब मन का पूर्णतः क्षय हो जाएगा,
तब हम मुक्त हो जाएँगे। इसके पहले हम बन्धन में हैं। हमारी आत्मा मन के
चक्रवात से
ढंकी रहती है और सोचती है कि वह एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जायी
जाती है।
जब चक्रवात समाप्त हो जाता है, तब वह अपने को
सर्वत्र
व्याप्त पाती है। उसे तब अनुभव होता है कि वह तो स्वेच्छा से कहीं भी
जा सकती है,
वह पूर्णतः स्वतन्त्र है और चाहे तो अनेकानेक शरीर और मन
की रचना कर
सकती है। किन्तु जब तक चक्रवात की समाप्ति नहीं होती, उसे
उसके
साथ ही चलना पड़ेगा। हम सभी इस चक्रवात से मुक्ति के लक्ष्य की ओर बढ़
रहे
हैं।
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