रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड

जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी ।
सकल कुर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जाइ कछु दाइज भूरी ।
रहा कनक मनि मंडपु पूरी॥


श्रीरामचन्द्रजीके विवाहकी जैसी विधि वर्णन की गयी, उसी रीतिसे सब राजकुमार विवाहे गये। दहेजकी अधिकता कुछ कही नहीं जाती; सारा मंडप सोने और मणियोंसे भर गया॥१॥

कंबल बसन बिचित्र पटोरे ।
भाँति भाँति बहु मोल न थोरे।।
गज रथ तुरग दास अरु दासी ।
धेनु अलंकृत कामदुहा सी॥


बहुत-से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँतिके विचित्र रेशमी कपड़े, जो थोड़ी कीमतके न थे (अर्थात् बहुमूल्य थे) तथा हाथी, रथ, घोड़े, दास-दासियाँ और गहनोंसे सजी हुई कामधेनु-सरीखी गायें- ॥२॥

बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा ।
कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा।
लोकपाल अवलोकि सिहाने ।
लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥


[आदि] अनेकों वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाय। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने देखा है वही जानते हैं। उन्हें देखकर लोकपाल भी सिहा गये। अवधराज दशरथजीने सुख मानकर प्रसन्नचित्तसे सब कुछ ग्रहण किया॥३॥

दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा ।
उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी।
बोले सब बरात सनमानी॥


उन्होंने वह दहेजका सामान याचकोंको, जो जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासेमें चला आया। तब जनकजी हाथ जोड़कर सारी बारातका सम्मान करते हुए कोमल वाणीसे बोले ॥४॥

छं०- सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ।


आदर, दान, विनय और बड़ाईके द्वारा सारी बारातका सम्मान कर राजा जनकने महान् आनन्दके साथ प्रेमपूर्वक लड़ाकर (लाड़ करके) मुनियोंके समूहकी पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओंको मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं (वे प्रेमसे ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावोंको कोई कुछ देकर कैसे सन्तुष्ट कर सकता है); क्या एक अञ्जलि जल देनेसे कहीं समुद्र सन्तुष्ट हो सकता है ॥१॥

कर जोरि जनकु बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों।
संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥


फिर जनकजी भाईसहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजीसे स्नेह, शील और सुन्दर प्रेममें सानकर मनोहर वचन बोले-हे राजन्! आपके साथ सम्बन्ध हो जानेसे अब हम सब प्रकारसे बड़े हो गये। इस राज-पाटसहित हम दोनोंको आप बिना दामके लिये हुए सेवक ही समझियेगा ॥२॥

ए दारिका परिचारिका करि पालिबी करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥


इन लड़कियोंको टहलनी मानकर, नयी-नयी दया करके पालन कीजियेगा। मैंने बड़ी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुलके भूषण दशरथजीने समधी जनकजीको सम्पूर्ण सम्मानका निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मानके भण्डार ही हो गये)। उनकी परस्परकी विनय कही नहीं जाती, दोनोंके हृदय प्रेमसे परिपूर्ण हैं ॥३॥

बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुंदुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै ।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥


देवतागण फूल बरसा रहे हैं; राजा जनवासेको चले। नगाड़ेकी ध्वनि, जयध्वनि और वेदकी ध्वनि हो रही है। आकाश और नगर दोनोंमें खूब कौतूहल हो रहा है (आनन्द छा रहा है), तब मुनीश्वरकी आज्ञा पाकर सुन्दरी सखियाँ मङ्गलगान करती हुई दुलहिनोंसहित दूल्होंको लिवाकर कोहबरको चलीं ॥४॥

दो०- पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचैन।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥३२६॥


सीताजी बार-बार रामजीको देखती हैं और सकुचा जाती हैं; पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेमके प्यासे उनके नेत्र सुन्दर मछलियोंकी छबिको हर रहे हैं। ३२६ ॥

मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम

स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन ।
सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल सुहाए ।
मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए।


श्रीरामचन्द्रजीका साँवला शरीर स्वभावसे ही सुन्दर है। उसकी शोभा करोड़ों कामदेवोंको लजानेवाली है। महावरसे युक्त चरणकमल बड़े सुहावने लगते हैं, जिनपर मुनियोंके मनरूपी भौंरे सदा छाये रहते हैं ॥१॥

पीत पुनीत मनोहर धोती ।
हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल किंकिनि कटि सूत्र मनोहर ।
बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर।।


पवित्र और मनोहर पीली धोती प्रात:कालके सूर्य और बिजलीकी ज्योतिको हरे लेती है। कमरमें सुन्दर किंकिणी और कटिसूत्र हैं। विशाल भुजाओंमें सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं॥२॥

पीत जनेउ महाछबि देई ।
कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह साज सब साजे ।
उर आयत उरभूषन राजे॥


पीला जनेऊ महान् शोभा दे रहा है। हाथ की अंगूठी चित्तको चुरा लेती है। ब्याहके सब साज सजे हुए वे शोभा पा रहे हैं। चौड़ी छातीपर हृदयपर पहननेके सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं ॥३॥

पिअर उपरना काखासोती ।
दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन कमल कल कुंडल काना ।
बदनु सकल सौंदर्ज निधाना॥


पीला दुपट्टा काँखासोती (जनेऊकी तरह) शोभित है, जिसके दोनों छोरोंपर मणि और मोती लगे हैं। कमलके समान सुन्दर नेत्र हैं, कानोंमें सुन्दर कुण्डल हैं और मुख तो सारी सुन्दरताका खजाना ही है ॥ ४ ॥

सुंदर भृकुटि मनोहर नासा ।
भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत मौरु मनोहर माथे ।
मंगलमय मुकुता मनि गाथे।


सुन्दर भौंहें और मनोहर नासिका है। ललाटपर तिलक तो सुन्दरताका घर ही है। जिसमें मङ्गलमय मोती और मणि गुंथे हुए हैं, ऐसा मनोहर मौर माथेपर सोह रहा है॥५॥



छं०- गाथे महामनि मौर मंजुल अंग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुंदरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं।
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मंगल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बंदि सुजसु सुनावहीं॥


सुन्दर मौरमें बहुमूल्य मणियाँ गुँथी हुई हैं, सभी अङ्ग चित्तको चुराये लेते हैं। सब नगरकी स्त्रियाँ और देवसुन्दरियाँ दूलहको देखकर तिनका तोड़ रही हैं (उनकी बलैयाँ ले रही हैं) और मणि, वस्त्र तथा आभूषण निछावर करके आरती उतार रही और मङ्गलगान कर रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत, मागध तथा भाट सुयश सुना रहे हैं ॥१॥

कोहबरहिं आने कुर कुरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागी करन मंगल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं।


सुहागिनी स्त्रियाँ सुख पाकर कुँअर और कुमारियोंको कोहबर (कुलदेवताके स्थान) में लायीं और अत्यन्त प्रेमसे मङ्गलगीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगी। पार्वतीजी श्रीरामचन्द्रजीको लहकौर (वर-वधूका परस्पर ग्रास देना) सिखाती हैं और सरस्वतीजी सीताजीको सिखाती हैं। रनिवास हास-विलासके आनन्दमें मग्न है, [श्रीरामजी और सीताजीको देख-देखकर] सभी जन्मका परम फल प्राप्त कर रही हैं ॥२॥

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोद प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुरि सुंदर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं।


अपने हाथकी मणियोंमें सुन्दर रूपके भण्डार श्रीरामचन्द्रजीकी परछाहीं दीख रही है। यह देखकर जानकीजी दर्शनमें वियोग होनेके भयसे बाहुरूपी लताको और दृष्टिको हिलाती-डुलाती नहीं हैं। उस समयके हँसी-खेल और विनोदका आनन्द और प्रेम कहा नहीं जा सकता, उसे सखियाँ ही जानती हैं। तदनन्तर वर-कन्याओंको सब सुन्दर सखियाँ जनवासेको लिवा चलीं ॥३॥

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरी चारु चारयो मुदित मन सबहीं कहा।
जोगींद्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुंदुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥


उस समय नगर और आकाशमें जहाँ सुनिये, वहीं आशीर्वादकी ध्वनि सुनायी दे रही है और महान् आनन्द छाया है। सभीने प्रसन्न मनसे कहा कि सुन्दर चारों जोड़ियाँ चिरंजीवी हों। योगिराज, सिद्ध, मुनीश्वर और देवताओंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको देखकर दुन्दुभी बजायी और हर्षित होकर फूलोंकी वर्षा करते हुए तथा 'जय हो, जय हो,जय हो' कहते हुए वे अपने-अपने लोकको चले ॥४॥



दो०- सहित बधूटिन्ह कुर सब तब आए पितु पास।
सोभा मंगल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥३२७॥


तब सब (चारों) कुमार बहुओंसहित पिताजीके पास आये। ऐसा मालूम होता था मानो शोभा, मङ्गल और आनन्दसे भरकर जनवासा उमड़ पड़ा हो॥३२७॥

पुनि जेवनार भई बहु भाँती ।
पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवड़े बसन अनूपा ।
सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥


फिर बहुत प्रकारकी रसोई बनी। जनकजीने बरातियोंको बुला भेजा। राजा दशरथजीने पुत्रोंसहित गमन किया। अनुपम वस्त्रोंके पाँवड़े पड़ते जाते हैं ।। १ ।।

सादर सब के पाय पखारे।
जथाजोगु पीढ़न्ह बैठारे॥
धोए जनक अवधपति चरना।
सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना।


आदरके साथ सबके चरण धोये और सबको यथायोग्य पीढ़ोंपर बैठाया। तब जनकजीने अवधपति दशरथजीके चरण धोये। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता ॥२॥

बहुरि राम पद पंकज धोए ।
जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी ।
धोए चरन जनक निज पानी॥


फिर श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंको धोया, जो श्रीशिवजीके हृदय-कमलमें छिपे रहते हैं। तीनों भाइयोंको श्रीरामचन्द्रजीके ही समान जानकर जनकजीने उनके भी चरण अपने हाथोंसे धोये॥३॥

आसन उचित सबहि नृप दीन्हे ।
बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन पनवारे ।
कनक कील मनि पान सँवारे ।


राजा जनकजीने सभीको उचित आसन दिये और सब परसनेवालोंको बुला लिया। आदरके साथ पत्तलें पड़ने लगीं, जो मणियोंके पत्तोंसे सोनेकी कील लगाकर बनायी गयी थीं ॥४॥

दो०- सूपोदन सुरभी सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत ।।३२८॥


चतुर और विनीत रसोइये सुन्दर, स्वादिष्ट और पवित्र दाल-भात और गायका [सुगन्धित] घी क्षणभरमें सबके सामने परस गये॥ ३२८॥



पंच कवल करि जेवन लागे ।
गारि गान सुनि अति अनुरागे।
भाँति अनेक परे पकवाने ।
सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥


सब लोग पंचकौर करके (अर्थात् 'प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा' इन मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए पहले पाँच ग्रास लेकर) भोजन करने लगे। गालीका गाना सुनकर वे अत्यन्त प्रेममग्न हो गये। अनेकों तरहके अमृतके समान (स्वादिष्ट) पकवान परसे गये, जिनका बखान नहीं हो सकता ॥१॥

परुसन लगे सुआर सुजाना ।
बिंजन बिबिध नाम को जाना।
चारि भाँति भोजन बिधि गाई ।
एक एक बिधि बरनि न जाई॥


चतुर रसोइये नाना प्रकारके व्यञ्जन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार प्रकारके (चळ, चोष्य, लेह्य, पेय अर्थात् चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीकर खानेयोग्य) भोजनकी विधि कही गयी है, उनमेंसे एक-एक विधिके इतने पदार्थ बने थे कि जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥२॥

छरस रुचिर बिंजन बहु जाती।
एक एक रस अगनित भाँती॥
जेवत देहिं मधुर धुनि गारी ।
लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥


छहों रसोंके बहुत तरहके सुन्दर (स्वादिष्ट) व्यञ्जन हैं। एक-एक रसके अनगिनती प्रकारके बने हैं। भोजन करते समय पुरुष और स्त्रियोंके नाम ले-लेकर स्त्रियाँ मधुर ध्वनिसे गाली दे रही हैं (गाली गा रही हैं)॥३॥

समय सुहावनि गारि बिराजा ।
हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा ।
आदर सहित आचमनु दीन्हा॥


समयकी सुहावनी गाली शोभित हो रही है। उसे सुनकर समाजसहित राजा दशरथजी हँस रहे हैं। इस रीतिसे सभीने भोजन किया और तब सबको आदरसहित आचमन (हाथ-मुँह धोनेके लिये जल) दिया गया ॥४॥

दो०- देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥३२९॥


फिर पान देकर जनकजीने समाजसहित दशरथजीका पूजन किया। सब राजाओंके सिरमौर (चक्रवर्ती) श्रीदशरथजी प्रसन्न होकर जनवासेको चले॥३२९॥



नित नूतन मंगल पुर माहीं।
निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बड़े भोर भूपतिमनि जागे ।
जाचक गुन गन गावन लागे॥


जनकपुरमें नित्य नये मङ्गल हो रहे हैं। दिन और रात पलके समान बीत जाते हैं। बड़े सबेरे राजाओंके मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुणसमूहका गान करने लगे॥१॥

देखि कुर बर बधुन्ह समेता ।
किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं ।
महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥


चारों कुमारोंको सुन्दर वधुओंसहित देखकर उनके मनमें जितना आनन्द है, वह किस प्रकार कहा जा सकता है ? वे प्रातःक्रिया करके गुरु वसिष्ठजीके पास गये। उनके मनमें महान् आनन्द और प्रेम भरा है॥२॥

करि प्रनामु पूजा कर जोरी ।
बोले गिरा अमिों जनु बोरी॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा ।
भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥


राजा प्रणाम और पूजन करके, फिर हाथ जोड़कर मानो अमृतमें डुबोयी हुई वाणी बोले-हे मुनिराज ! सुनिये, आपकी कृपासे आज मैं पूर्णकाम हो गया॥ ३ ॥

अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं।
देहु धेनु सब भाँति बनाईं।
सुनि गुर करि महिपाल बड़ाई।
पुनि पठए मुनिबूंद बोलाई॥


हे स्वामिन् ! अब सब ब्राह्मणोंको बुलाकर उनको सब तरह [गहनों-कपड़ों] से सजी हुई गायें दीजिये। यह सुनकर गुरुजीने राजाकी बड़ाई करके फिर मुनिगणोंको बुलवा भेजा ॥४॥

दो०- बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि ॥३३०॥


तब वामदेव, देवर्षि नारद, वाल्मीकि, जाबालि और विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनियोंके समूह-के-समूह आये॥ ३३०॥



दंड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे ।
पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे ॥
चारि लच्छ बर धेनु मगाईं।
काम सुरभि सम सील सुहाईं।


राजाने सबको दण्डवत्-प्रणाम किया और प्रेमसहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिये। चार लाख उत्तम गायें मँगवायीं, जो कामधेनुके समान अच्छे स्वभाववाली और सुहावनी थीं ॥१॥

सब बिधि सकल अलंकृत कीन्हीं ।
मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥
करत बिनय बहु बिधि नरनाहू ।
लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥


उन सबको सब प्रकारसे [गहनों-कपड़ोंसे] सजाकर राजाने प्रसन्न होकर भूदेव ब्राह्मणोंको दिया। राजा बहुत तरहसे विनती कर रहे हैं कि जगतमें मैंने आज ही जीनेका लाभ पाया॥२॥

पाइ असीस महीसु अनंदा ।
लिए बोलि पुनि जाचक बूंदा॥
कनक बसन मनि हय गय स्यंदन ।
दिए बूझि रुचि रबिकुलनंदन।


[ब्राह्मणोंसे] आशीर्वाद पाकर राजा आनन्दित हुए। फिर याचकोंके समूहोंको बुलवा लिया और सबको उनकी रुचि पूछकर सोना, वस्त्र, मणि, घोड़ा, हाथी और रथ (जिसने जो चाहा सो) सूर्यकुलको आनन्दित करनेवाले दशरथजीने दिये॥ ३ ।।

चले पढ़त गावत गुन गाथा ।
जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥
एहि बिधि राम बिआह उछाहू ।
सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥


वे सब गुणानुवाद गाते और 'सूर्यकुलके स्वामीकी जय हो, जय हो, जय हो' कहते हुए चले। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके विवाहका उत्सव हुआ। जिन्हें सहस्र मुख हैं वे शेषजी भी उसका वर्णन नहीं कर सकते ॥४॥

दो०- बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥३३१॥


बार-बार विश्वामित्रजीके चरणोंमें सिर नवाकर राजा कहते हैं-हे मुनिराज! यह सब सुख आपके ही कृपाकटाक्षका प्रसाद है ॥ ३३१ ॥



जनक सनेहु सीलु करतूती ।
नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा।
राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥


राजा दशरथजी जनकजीके स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्यकी सब प्रकारसे सराहना करते हैं। प्रतिदिन [सबेरे] उठकर अयोध्यानरेश विदा मांगते हैं। पर जनकजी उन्हें प्रेमसे रख लेते हैं ॥१॥

नित नूतन आदरु अधिकाई ।
दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर अनंद उछाहू ।
दसरथ गवनु सोहाइ न काह॥


आदर नित्य नया बढ़ता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकारसे मेहमानी होती है। नगरमें नित्य नया आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजीका जाना किसीको नहीं सुहाता ॥२॥

बहुत दिवस बीते एहि भाँती।
जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानंद तब जाई।
कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥


इस प्रकार बहुत दिन बीत गये, मानो बराती स्नेहकी रस्सीसे बँध गये हैं। तब विश्वामित्रजी और शतानन्दजीने जाकर राजा जनकको समझाकर कहा- ॥३॥

अब दसरथ कहँ आयसु देहू ।
जद्यपि छाड़ि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए ।
कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए।


यद्यपि आप स्नेह [वश उन्हें] नहीं छोड़ सकते, तो भी अब दशरथजीको आज्ञा दीजिये। हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर जनकजीने मन्त्रियोंको बुलवाया। वे आये और 'जय जीव' कहकर उन्होंने मस्तक नवाया॥४॥

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