रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥३३२॥
[जनकजीने कहा-] अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, भीतर (रनिवासमें) खबर कर दो। यह सुनकर मन्त्री, ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेमके वश हो गये। ३३२॥
बूझत बिकल परस्पर बाता।
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने ।
मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥
जनकपुरवासियोंने सुना कि बारात जायगी, तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरेसे बात पूछने लगे। जाना सत्य है, यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गये मानो सन्ध्याके समय कमल सकुचा गये हों॥१॥
तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना ।
भोजन साजु न जाइ बखाना॥
आते समय जहाँ-जहाँ बराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहुत प्रकारका सीधा (रसोईका सामान) भेजा गया। अनेकों प्रकारके मेवे, पकवान और भोजनकी सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती ॥२॥
पठई जनक अनेक सुसारा॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा ।
सकल सँवारे नख अरु सीसा॥
अनगिनत बैलों और कहारोंपर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गयी। साथ ही जनकजीने अनेकों सुन्दर शय्याएँ (पलँग) भेजीं । एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नखसे शिखातक (ऊपरसे नीचेतक) सजाये हुए, ॥३॥
जिन्हहि देखि दिसिकुंजर लाजे॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना ।
महिषी धेनु बस्तु बिधि नाना॥
दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओंके हाथी भी लजा जाते हैं, गाड़ियोंमें भर-भरकर सोना, वस्त्र और रत्न (जवाहिरात) और भैंस, गाय तथा और भी नाना प्रकारकी चीजें दीं ॥ ४॥
जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि॥३३३॥
[इस प्रकार] जनकजीने फिरसे अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालोंके लोकोंकी सम्पदा भी थोड़ी जान पड़ती थी॥३३३ ।।
जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
चलिहि बरात सुनत सब रानी ।
बिकल मीनगन जनु लघु पानी।
इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनकने अयोध्यापुरीको भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गयीं, मानो थोड़े जलमें मछलियाँ छटपटा रही हों ॥१॥
देइ असीस सिखावनु देहीं॥
होएहु संतत पियहि पिआरी ।
चिरु अहिबात असीस हमारी॥
वे बार-बार सीताजीको गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं-तुम सदा अपने पतिकी प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशिष है।॥२॥
पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति सनेह बस सखी सयानी ।
नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥
सास, ससुर और गुरुकी सेवा करना। पतिका रुख देखकर उनकी आज्ञाका पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेहके वश कोमल वाणीसे स्त्रियोंके धर्म सिखलाती हैं ।। ३ ।।
रानिन्ह बार बार उर लाई॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं ।
कहहिं बिरंचि रची कत नारी।।
आदरके साथ सब पुत्रियोंको [स्त्रियोंके धर्म] समझाकर रानियोंने बार-बार उन्हें हृदयसे लगाया। माताएँ फिर-फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्रीजाति को क्यों रचा ॥४॥
चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु॥३३४॥
उसी समय सूर्यवंशके पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी भाइयोंसहित प्रसन्न होकर विदा करानेके लिये जनकजीके महलको चले॥३३४॥
नगर नारि नर देखन धाए॥
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू ।
कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥
स्वभावसे ही सुन्दर चारों भाइयोंको देखनेके लिये नगरके स्त्री-पुरुष दौड़े। कोई कहता है--आज ये जाना चाहते हैं। विदेहने विदाईका सब सामान तैयार कर लिया है॥१॥
प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥
को जानै केहिं सुकृत सयानी ।
नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥
राजाके चारों पुत्र, इन प्यारे मेहमानोंके [मनोहर] रूपको नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी! कौन जाने, किस पुण्यसे विधाताने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रोंका अतिथि किया है॥२॥
सुरतरु लहै जनम कर भूखा।
पाव नारकी हरिपदु जैसें ।
इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें।
मरनेवाला जिस तरह अमृत पा जाय, जन्मका भूखा कल्पवृक्ष पा जाय और नरकमें रहनेवाला (या नरकके योग्य) जीव जैसे भगवानके परमपदको प्राप्त हो जाय, हमारे लिये इनके दर्शन वैसे ही हैं ॥ ३ ॥
निज मन फनि मूरति मनि करहू॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता।
गए कुऔर सब राज निकेता॥
श्रीरामचन्द्रजीकी शोभाको निरखकर हृदयमें धर लो। अपने मनको साँप और इनकी मूर्तिको मणि बना लो। इस प्रकार सबको नेत्रोंका फल देते हुए सब राजकुमार राजमहलमें गये॥४॥
करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥३३५॥
रूपके समुद्र सब भाइयोंको देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान् प्रसन्न मनसे निछावर और आरती करती हैं ॥३३५॥
प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागी॥
रही न लाज प्रीति उर छाई ।
सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥
श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखकर वे प्रेममें अत्यन्त मग्न हो गयी और प्रेमके विशेष वश होकर बार-बार चरणों लगीं। हृदयमें प्रीति छा गयी, इससे लज्जा नहीं रह गयी। उनके स्वाभाविक स्नेहका वर्णन किस तरह किया जा सकता है॥१॥
छरस असन अति हेतु जेवाए॥
बोले रामु सुअवसरु जानी।
सील सनेह सकुचमय बानी॥
उन्होंने भाइयोंसहित श्रीरामजीको उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेमसे षट्रस भोजन कराया। सुअवसर जानकर श्रीरामचन्द्रजी शील, स्नेह और संकोचभरी वाणी बोले- ॥२॥
बिदा होन हम इहाँ पठाए॥
मातु मुदित मन आयसु देहू ।
बालक जानि करब नित नेहू॥
महाराज अयोध्यापुरीको चलना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होनेके लिये यहाँ भेजा है। हे माता! प्रसन्न मनसे आज्ञा दीजिये और हमें अपने बालक जानकर सदा स्नेह बनाये रखियेगा॥३॥
बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥
हृदयँ लगाइ कुअरि सब लीन्ही ।
पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही॥
इन वचनोंको सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकती। उन्होंने सब कुमारियोंको हृदयसे लगा लिया और उनके पतियोंको सौंपकर बहुत विनती की॥४॥
बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी॥
विनती करके उन्होंने सीताजीको श्रीरामचन्द्रजीको समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा-हे तात! हे सुजान! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबकी गति (हाल) मालूम है। परिवारको, पुरवासियोंको, मुझको और राजाको सीता प्राणोंके समान प्रिय है, ऐसा जानियेगा। हे तुलसीके स्वामी! इसके शील और स्नेहको देखकर इसे अपनी दासी करके मानियेगा।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन ॥३३६॥
तुम पूर्णकाम हो, सुजानशिरोमणि हो और भावप्रिय हो (तुम्हें प्रेम प्यारा है)। हे राम! तुम भक्तोंके गुणोंको ग्रहण करनेवाले, दोषोंको नाश करनेवाले और दयाके धाम हो॥ ३३६ ॥
प्रेम पंक जनु गिरा समानी॥
सुनि सनेहसानी बर बानी ।
बहुबिधि राम सासु सनमानी॥
ऐसा कहकर रानी चरणोंको पकड़कर [चुप] रह गयीं। मानो उनकी वाणी प्रेमरूपी दलदलमें समा गयी हो। स्नेहसे सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने सासका बहुत प्रकारसे सम्मान किया॥१॥
कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई।
भाइन्ह सहित चले रघुराई॥
तब श्रीरामचन्द्रजीने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुए बार-बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयोंसहित श्रीरघुनाथजी चले ॥२॥
भई सनेह सिथिल सब रानी॥
पुनि धीरजु धरि कुरि हँकारी ।
बार बार भेटहिं महतारी॥
श्रीरामजीकी सुन्दर मधुर मूर्तिको हृदयमें लाकर सब रानियाँ स्नेहसे शिथिल हो गयीं। फिर धीरज धारण करके कुमारियोंको बुलाकर माताएँ बारंबार उन्हें [गले लगाकर] भेंटने लगीं ॥३॥
बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी॥
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई ।
बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥
पुत्रियोंको पहुँचाती हैं, फिर लौटकर मिलती हैं। परस्परमें कुछ थोड़ी प्रीति नहीं बढ़ी (अर्थात् बहुत प्रीति बढ़ी)। बार-बार मिलती हुई माताओंको सखियोंने अलग कर दिया। जैसे हालको ब्यायी हुई गायको कोई उसके बालक बछड़े [या बछिया] से अलग कर दे॥४॥
दो०- प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥३३७॥
सब स्त्री-पुरुष और सखियोंसहित सारा रनिवास प्रेमके विशेष वश हो रहा है। [ऐसा लगता है] मानो जनकपुरमें करुणा और विरहने डेरा डाल दिया है॥३३७ ।।
कनक पिंजरन्हि राखि पढ़ाए।
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही ।
सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥
जानकीने जिन तोता और मैनाको पाल-पोसकर बड़ा किया था और सोनेके पिंजड़ोंमें रखकर पढ़ाया था, वे व्याकुल होकर कह रहे हैं- वैदेही कहाँ हैं। उनके ऐसे वचनोंको सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा (अर्थात् सबका धैर्य जाता रहा)॥१॥
मनुज दसा कैसें कहि जाती।
बंधु समेत जनकु तब आए ।
प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥
जब पक्षी और पशुतक इस तरह विकल हो गये, तब मनुष्योंकी दशा कैसे कही जा सकती है! तब भाईसहित जनकजी वहाँ आये। प्रेमसे उमड़कर उनके नेत्रों में [प्रेमाश्रुओंका] जल भर आया ।। २॥
रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी।
मिटी महामरजाद ग्यान की।
वे परम वैराग्यवान् कहलाते थे; पर सीताजीको देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजाने जानकीजीको हृदयसे लगा लिया। [प्रेमके प्रभावसे] ज्ञानकी महान् मर्यादा मिट गयी (ज्ञानका बाँध टूट गया) ॥३॥
कीन्ह बिचारु न अवसर जाने ।।
बारहिं बार सुता उर लाईं।
सजि सुंदर पालकी मगाईं।
सब बुद्धिमान् मन्त्री उन्हें समझाते हैं। तब राजाने विषाद करनेका समय न जानकर विचार किया। बारंबार पुत्रियोंको हृदयसे लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियाँ मँगवायी॥४॥
कुरि चढ़ाई पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥३३८॥
सारा परिवार प्रेममें विवश है। राजाने सुन्दर मुहूर्त जानकर सिद्धिसहित गणेशजीका स्मरण करके कन्याओंको पालकियोंपर चढ़ाया॥३३८॥
नारिधरमु कुलरीति सिखाईं।
दासी दास दिए बहुतेरे ।
सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।
राजाने पुत्रियोंको बहुत प्रकारसे समझाया और उन्हें स्त्रियोंका धर्म और कुलकी रीति सिखायी। बहुत-से दासी-दास दिये, जो सीताजीके प्रिय और विश्वासपात्र सेवकथे॥१॥
होहिं सगुन सुभ मंगल रासी॥
भूसुर सचिव समेत समाजा ।
संग चले पहुँचावन राजा॥
सीताजीके चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गये। मङ्गलकी राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मन्त्रियोंके समाजसहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचानेके लिये साथ चले ॥२॥
रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे ।
दान मान परिपूरन कीन्हे।
समय देखकर बाजे बजने लगे। बरातियोंने रथ, हाथी और घोड़े सजाये। दशरथजीने सब ब्राह्मणोंको बुला लिया और उन्हें दान और सम्मानसे परिपूर्ण कर दिया ॥३॥
मुदित महीपति पाइ असीसा॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना ।
मंगलमूल सगुन भए नाना॥
उनके चरणकमलोंकी धूलि सिरपर धरकर और आशिष पाकर राजा आनन्दित हुए और गणेशजीका स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया। मङ्गलोंके मूल अनेकों शकुन हुए॥ ४॥
चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥
देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गान कर रही हैं। अवधपति दशरथजी नगाड़े बजाकर आनन्दपूर्वक अयोध्यापुरीको चले॥३३९॥
सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे ।
प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥
राजा दशरथजीने विनती करके प्रतिष्ठित जनोंको लौटाया और आदरके साथ सब मंगनोंको बुलवाया। उनको गहने-कपड़े, घोड़े-हाथी दिये और प्रेमसे पुष्ट करके सबको सम्पन्न अर्थात् बलयुक्त कर दिया॥१॥
फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं ।
जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥
वे सब बारंबार विरुदावली (कुलकीर्ति) बखानकर और श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें रखकर लौटे। कोसलाधीश दशरथजी बार-बार लौटनेको कहते हैं, परन्तु जनकजी प्रेमवश लौटना नहीं चाहते॥२॥
फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए।
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े।
प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥
दशरथजीने फिर सुहावने वचन कहे-हे राजन्! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर राजा दशरथजी रथसे उतरकर खड़े हो गये। उनके नेत्रोंमें प्रेमका प्रवाह बढ़ आया (प्रेमाश्रुओंकी धारा बह चली)॥३॥
बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौं कवन बिधि बिनय बनाई।
महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई।
तब जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेहरूपी अमृतमें डुबोकर वचन बोले-मैं किस तरह बनाकर (किन शब्दोंमें) विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है॥ ४॥
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥३४०॥
अयोध्यानाथ दशरथजीने अपने स्वजन समधीका सब प्रकारसे सम्मान किया। उनके आपसके मिलनेमें अत्यन्त विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदयमें समाती न थी॥ ३४० ।।
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