रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (बालकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। प्रथम सोपान बालकाण्ड
आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर पुनि भेंटे जामाता ।
रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥
जनकजीने मुनिमण्डलीको सिर नवाया और सभीसे आशीर्वाद पाया। फिर आदरके साथ वे रूप, शील और गुणोंके निधान सब भाइयोंसे-अपने दामादोंसे मिले;॥१॥
बोले बचन प्रेम जनु जाए।
राम करौं केहि भाँति प्रसंसा ।
मुनि महेस मन मानस हंसा॥
और सुन्दर कमलके समान हाथोंको जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेमसे ही जन्मे हों। हे रामजी! मैं किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूँ! आप मुनियों और महादेवजीके मनरूपी मानसरोवरके हंस हैं ।।२।।
कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु ब्रह्म अलखु अबिनासी ।
चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥
योगी लोग जिनके लिये क्रोध, मोह, ममता और मदको त्यागकर योगसाधन करते हैं, जो सर्वव्यापक, ब्रह्म, अव्यक्त, अविनाशी, चिदानन्द, निर्गुण और गुणोंकी राशि हैं, ॥३॥
तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई।
जो तिहुँ काल एकरस रहई॥
जिनको मनसहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्कना नहीं कर सकते; जिनकी महिमाको वेद 'नेति' कहकर वर्णन करता है और जो [सच्चिदानन्द] तीनों कालोंमें एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं;॥ ४॥
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल॥३४१॥
वे ही समस्त सुखोंके मूल [आप] मेरे नेत्रोंके विषय हुए। ईश्वरके अनुकूल होनेपर जगतमें जीवको सब लाभ-ही-लाभ है ॥ ३४१॥
निज जन जानि लीन्ह अपनाई।
होहिं सहस दस सारद सेषा ।
करहिं कलप कोटिक भरि लेखा।
आपने मुझे सभी प्रकारसे बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोड़ों कल्पोंतक गणना करते रहें॥१॥
कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मैं कछु कहउँ एक बल मोरें ।
तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें।
तो भी हे रघुनाथजी! सुनिये, मेरे सौभाग्य और आपके गुणोंकी कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही बलपर कि आप अत्यन्त थोड़े प्रेमसे प्रसन्न हो जाते हैं ॥ २॥
मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे ।
पूरनकाम रामु परितोषे॥
मैं बार-बार हाथ जोड़कर यह माँगता हूँ कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणोंको न छोड़े। जनकजीके श्रेष्ठ वचनोंको सुनकर, जो मानो प्रेमसे पुष्ट किये हुए थे, पूर्णकाम श्रीरामचन्द्रजी सन्तुष्ट हुए।। ३ ।।
पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने।
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही ।
मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही।
उन्होंने सुन्दर विनती करके पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्रजी और कुलगुरु वसिष्ठजीके समान जानकर ससुर जनकजीका सम्मान किया। फिर जनकजीने भरतजीसे विनती की और प्रेमके साथ मिलकर फिर उन्हें आशीर्वाद दिया॥४॥
भए परसपर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥
फिर राजाने लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजीसे मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेमके वश होकर बार-बार आपसमें सिर नवाने लगे॥ ३४२ ॥
रघुपति चले संग सब भाई॥
जनक गहे कौसिक पद जाई।
चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥
जनकजीकी बार-बार विनती और बड़ाई करके श्रीरघुनाथजी सब भाइयोंके साथ चले। जनकजीने जाकर विश्वामित्रजीके चरण पकड़ लिये और उनके चरणोंकी रजको सिर और नेत्रोंमें लगाया ॥१॥
अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं।
करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥
[उन्होंने कहा-] हे मुनीश्वर ! सुनिये, आपके सुन्दर दर्शनसे कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मनमें ऐसा विश्वास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं; परन्तु [असम्भव समझकर] जिसका मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं, ॥ २॥
सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई।
फिरे महीसु आसिषा पाई॥
हे स्वामी! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी सिद्धियाँ आपके दर्शनोंकी अनुगामिनी अर्थात पीछे-पीछे चलनेवाली हैं। इस प्रकार बार-बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे ॥३॥
मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी ।
पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥
डंका बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं [रास्तेके] गाँवोंके स्त्री-पुरुष श्रीरामचन्द्रजीको देखकर नेत्रोंका फल पाकर सुखी होते हैं॥४॥
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥३४३॥
बीच-बीचमें सुन्दर मुकाम करती हुई तथा मार्गके लोगोंको सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिनमें अयोध्यापुरीके समीप आ पहुँची॥ ३४३ ॥
भेरि संख धुनि हय गय गाजे॥
झाँझि बिरव डिंडिमी सुहाई।
सरस राग बाजहिं सहनाई।
नगाड़ोंपर चोटें पड़ने लगी; सुन्दर ढोल बजने लगे। भेरी और शङ्खकी बड़ी आवाज हो रही है; हाथी-घोड़े गरज रहे हैं। विशेष शब्द करनेवाली झाँझें, सुहावनी डफलियाँ तथा रसीले रागसे शहनाइयाँ बज रही हैं ॥१॥
मुदित सकल पुलकावलि गाता॥
निज निज सुंदर सदन सँवारे ।
हाट बाट चौहट पुर द्वारे॥
बारातको आती हुई सुनकर नगरनिवासी प्रसन्न हो गये। सबके शरीरोंपर पुलकावली छा गयी। सबने अपने-अपने सुन्दर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगरके द्वारोंको सजाया॥२॥
जहँ तहँ चौकें चारु पुराई।
बना बजारु न जाइ बखाना ।
तोरन केतु पताक बिताना॥
सारी गलियाँ अरगजेसे सिंचायी गयीं, जहाँ-तहाँ सुन्दर चौक पुराये गये। तोरणों, ध्वजा पताकाओं और मण्डपोंसे बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥ ३ ॥
रोपे बकुल कदंब तमाला॥
लगे सुभग तरु परसत धरनी।
मनिमय आलबाल कल करनी॥
फलसहित सुपारी, केला, आम, मौलसिरी, कदम्ब और तमालके वृक्ष लगाये गये। वे लगे हुए सुन्दर वृक्ष [फलोंके भारसे] पृथ्वीको छू रहे हैं। उनके मणियोंके थाले बड़ी सुन्दर कारीगरीसे बनाये गये हैं ॥ ४॥
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥३४४॥
अनेक प्रकारके मङ्गल-कलश घर-घर सजाकर बनाये गये हैं। श्रीरघुनाथजीकी पुरी (अयोध्या) को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते हैं ॥३४४॥
रचना देखि मदन मनु मोहा॥
मंगल सगुन मनोहरताई।
रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई॥
उस समय राजमहल [अत्यन्त] शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेवका भी मन मोहित हो जाता था। मङ्गल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति ॥१॥
तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए॥
देखन हेतु राम बैदेही।
कहहु लालसा होहि न केही॥
और सब प्रकारके उत्साह (आनन्द) मानो सहज सुन्दर शरीर धर-धरकर दशरथजीके घरमें छा गये हैं। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीके दर्शनोंके लिये भला कहिये, किसे लालसा न होगी॥२॥
निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥
सकल सुमंगल सजें आरती ।
गावहिं जनु बहु बेष भारती॥
सुहागिनी स्त्रियाँ झुंड-की-झुंड मिलकर चली, जो अपनी छबिसे कामदेवकी स्त्री रतिका भी निरादर कर रही हैं। सभी सुन्दर मङ्गलद्रव्य एवं आरती सजाये हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत-से वेष धारण किये गा रही हों॥३॥
जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥
कौसल्यादि राम महतारी ।
प्रेमबिबस तन दसा बिसारी॥
राजमहलमें [आनन्दके मारे] शोर मच रहा है। उस समयका और सुखका वर्णन नहीं किया जा सकता। कौसल्याजी आदि श्रीरामचन्द्रजीकी सब माताएँ प्रेमके विशेष वश होनेसे शरीरकी सुध भूल गयीं ॥४॥
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥३४५॥
गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजीका पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणोंको बहुत-सा दान दिया। वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं, मानो अत्यन्त दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो॥३४५ ॥
चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥
राम दरस हित अति अनुरागी ।
परिछनि साजु सजन सब लागीं।
सुख और महान् आनन्दसे विवश होनेके कारण सब माताओंके शरीर शिथिल हो गये हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनोंके लिये वे अत्यन्त अनुरागमें भरकर परछनका सब सामान सजाने लगीं ॥१॥
मंगल मुदित सुमित्राँ साजे॥
हरद दूब दधि पल्लव फूला ।
पान पूगफल मंगल मूला॥
अनेकों प्रकारके बाजे बजते थे। सुमित्राजीने आनन्दपूर्वक मङ्गल साज सजाये। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मङ्गलकी मूल वस्तुएँ, ॥ २ ॥
मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए ।
मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥
तथा अक्षत (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसीकी सुन्दर मंजरियाँ सुशोभित हैं। नाना रंगोंसे चित्रित किये हुए सहज सुहावने सुवर्णके कलश ऐसे मालूम , होते हैं, मानो कामदेवके पक्षियोंने घोंसले बनाये हों॥३॥
मंगल सकल सजहिं सब रानी॥
रची आरती बहुत बिधाना ।
मुदित करहिं कल मंगल गाना॥
शकुनकी सुगन्धित वस्तुएँ बखानी नहीं जा सकती। सब रानियाँ सम्पूर्ण मङ्गल साज सज रही हैं। बहुत प्रकारकी आरती बनाकर वे आनन्दित हुईं सुन्दर मङ्गलगान कर रही हैं ॥ ४॥
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥३४६ ॥
सोनेके थालोंको माङ्गलिक वस्तुओंसे भरकर अपने कमलके समान (कोमल) हाथोंमें लिये हुए माताएँ आनन्दित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गये हैं ॥ ३४६॥
सावन घन घमंडु जनु ठयऊ।
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं ।
मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥
धूपके धूएँसे आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावनके बादल घुमड़-घुमड़कर छा गये हों। देवता कल्पवृक्षके फूलोंकी मालाएँ बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती हैं मानो बगुलोंकी पाँति मनको [अपनी ओर खींच रही हो॥१॥
मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि ।
चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥
सुन्दर मणियोंसे बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं मानो इन्द्रधनुष सजाये हों। अटारियोंपर सुन्दर और चपल स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं (आती-जाती हैं); वे ऐसी जान पड़ती हैं मानो बिजलियाँ चमक रही हों ॥२॥
जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर सुगंध सुचि बरषहिं बारी ।
सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥
नगाड़ोंकी ध्वनि मानो बादलोंकी घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेढक और मोर हैं । देवता पवित्र सुगन्धरूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेतीके समान नगरके सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं ॥३॥
पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि संभु गिरिजा गनराजा ।
मुदित महीपति सहित समाजा॥
[प्रवेशका] समय जानकर गुरु वसिष्ठजीने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजीने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजीका स्मरण करके समाजसहित आनन्दित होकर नगरमें प्रवेश किया॥४॥
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ॥३४७॥
शकुन हो रहे हैं, देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओंकी स्त्रियाँ आनन्दित होकर सुन्दर मङ्गलगीत गा-गाकर नाच रही हैं । ३४७॥
गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी ।
दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी॥
मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकोंके उजागर (सबको प्रकाश देनेवाले, परम प्रकाशस्वरूप) श्रीरामचन्द्रजीका यश गा रहे हैं। जयध्वनि तथा वेदकी निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मङ्गलसे सनी हुई दसों दिशाओंमें सुनायी पड़ रही है ॥१॥
नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने बराती बरनि न जाहीं।
महा मुदित मन सुख न समाहीं॥
बहुत-से बाजे बजने लगे। आकाशमें देवता और नगरमें लोग सब प्रेममें मग्न हैं। बराती ऐसे बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनन्दित हैं, सुख उनके मनमें समाता नहीं है ॥ २ ॥
देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा ।
बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥
तब अयोध्यावासियोंने राजाको जोहार (वन्दना) की। श्रीरामचन्द्रजीको देखते ही वे सुखी हो गये। सब मणियाँ और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रोंमें [प्रेमाश्रुओंका] जल भरा है और शरीर पुलकित हैं ॥३॥
हरषहिं निरखि कुर बर चारी॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी ।
देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥
नगरकी स्त्रियाँ आनन्दित होकर आरती कर रही हैं और सुन्दर चारों कुमारोंको देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियोंके सुन्दर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनोंको देखकर सुखी होती हैं ॥४॥
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