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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥१८९॥
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥१८९॥
ऐसा विचारकर गुह (निषादराज) ने अपनी जातिवालों से कहा कि सब लोग सावधान हो जाओ।
नावों को हाथ में (कब्जेमें) कर लो और फिर उन्हें डुबा दो तथा सब घाटों को रोक
दो॥१८९॥
होहु सँजोइल रोकहु घाटा।
ठाटहु सकल मरै के ठाटा।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ।
जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।
ठाटहु सकल मरै के ठाटा।
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ।
जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।
सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो (अर्थात् भरतसे
युद्ध में लड़कर मरनेके लिये तैयार हो जाओ)। मैं भरत से सामने (मैदानमें) लोहा
लूँगा (मुठभेड़ करूँगा) और जीते-जी उन्हें गङ्गापार न उतरने दूंगा ॥१॥
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा।
राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू।
बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥
राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नृपु मैं जन नीचू।
बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥
युद्धमें मरण, फिर गङ्गाजीका तट, श्रीरामजीका काम और क्षणभङ्गुर शरीर (जो चाहे
जब नाश हो जाय); भरत श्रीरामजीके भाई और राजा (उनके हाथसे मरना) और मैं नीच
सेवक-बड़े भाग्यसे ऐसी मृत्यु मिलती है ॥२॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी।
जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें।
दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।
जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें।
दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।
मैं स्वामी के काम के लिये रण में लड़ाई करूँगा और चौदहों लोकों को अपने यश से
उज्ज्वल कर दूंगा। श्रीरघुनाथजीके निमित्त प्राण त्याग दूंगा। मेरे तो दोनों ही
हाथोंमें आनन्द के लड्डू हैं (अर्थात् जीत गया तो रामसेवक का यश प्राप्त करूँगा
और मारा गया तो श्रीरामजीकी नित्य सेवा प्राप्त करूँगा)॥३॥
साधु समाज न जाकर लेखा।
राम भगत महुँ जासु न रेखा।
जायँ जिअत जग सो महि भारू।
जननी जौबन बिटप कुठारू॥
राम भगत महुँ जासु न रेखा।
जायँ जिअत जग सो महि भारू।
जननी जौबन बिटप कुठारू॥
साधुओंके समाजमें जिसकी गिनती नहीं और श्रीरामजीके भक्तोंमें जिसका स्थान नहीं,
वह जगत्में पृथ्वीका भार होकर व्यर्थ ही जीता है। वह माताके यौवनरूपी वृक्षके
काटनेके लिये कुल्हाड़ामात्र है।॥ ४॥
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