|
रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
|
|
||||||
भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥१९०॥ [
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥१९०॥ [
इस प्रकार श्रीरामजीके लिये प्राणसमर्पणका निश्चय करके] निषादराज विषादसे रहित
हो गया और सबका उत्साह बढ़ाकर तथा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके उसने तुरंत ही
तरकस, धनुष और कवच माँगा ॥ १९० ॥
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ।
सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा।
एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।
सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा।
एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।
[उसने कहा-] हे भाइयो! जल्दी करो और सब सामान सजाओ। मेरी आज्ञा सुनकर कोई मनमें
कायरता न लावे। सब हर्षके साथ बोल उठे-हे नाथ! बहुत अच्छा; और आपसमें
एक-दूसरेका जोश बढ़ाने लगे॥१॥
चले निषाद जोहारि जोहारी।
सूर सकल रन रूचइ रारी॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं।
भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।
सूर सकल रन रूचइ रारी॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं।
भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।
निषादराजको जोहार कर-करके सब निषाद चले। सभी बड़े शूरवीर हैं और संग्राममें
लड़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंकी जूतियोंका
स्मरण करके उन्होंने भाथियाँ (छोटे-छोटे तरकस) बाँधकर धनुहियों (छोटे-छोटे
धनुषों) पर प्रत्यञ्चा चढ़ायीं ॥२॥
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं।
फरसा बाँस सेल सम करहीं।
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े।
कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े।
फरसा बाँस सेल सम करहीं।
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े।
कूदहिं गगन मनहुँ छिति छाँड़े।
कवच पहनकर सिरपर लोहेका टोप रखते हैं और फरसे, भाले तथा बरछोंको सीधा कर रहे
हैं (सुधार रहे हैं)। कोई तलवारके वार रोकने में अत्यन्त ही कुशल हैं। वे ऐसे
उमंगमें भरे हैं मानो धरती छोड़कर आकाशमें कूद (उछल) रहे हों॥३॥
निज निज साजु समाजु बनाई।
गुह राउतहि जोहारे जाई॥
देखि सुभट सब लायक जाने।
लै लै नाम सकल सनमाने॥
गुह राउतहि जोहारे जाई॥
देखि सुभट सब लायक जाने।
लै लै नाम सकल सनमाने॥
अपना-अपना साज-समाज (लड़ाईका सामान और दल) बनाकर उन्होंने जाकर निषादराज गुहको
जोहार की। निषादराजने सुन्दर योद्धाओंको देखकर, सबको सुयोग्य जाना और नाम
ले-लेकर सबका सम्मान किया ॥४॥
|
|||||
लोगों की राय
No reviews for this book






