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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
गहह घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥१९२॥
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥१९२॥
अतएव हे वीरो! तुम लोग इकट्ठे होकर सब घाटोंको रोक लो, मैं जाकर भरतजीसे मिलकर
उनका भेद लेता हूँ। उनका भाव मित्रका है या शत्रुका या उदासीनका, यह जानकर तब
आकर वैसा (उसीके अनुसार) प्रबन्ध करूँगा॥१९२।।
लखब सनेहु सुभायँ सुहाएँ।
बरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।
अस कहि भेंट सँजोवन लागे।
कंद मूल फल खग मृग मागे॥
बरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।
अस कहि भेंट सँजोवन लागे।
कंद मूल फल खग मृग मागे॥
उनके सुन्दर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूँगा। वैर और प्रेम छिपाने से
नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का सामान सजाने लगा। उसने कन्द, मूल, फल, पक्षी
और हिरन मँगवाये ॥१॥
मीन पीन पाठीन पुराने।
भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए।
मंगल मूल सगुन सुभ पाए।
भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए।
मंगल मूल सगुन सुभ पाए।
कहार लोग पुरानी और मोटी पहिना नामक मछलियोंके भार भर-भरकर लाये। भेटका सामान
सजाकर मिलनेके लिये चले तो मङ्गलदायक शुभ-शकुन मिले ॥२॥
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