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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
भरत-निषाद-मिलन और संवाद एवं भरतजी का तथा नगरवासियों का प्रेम
देखि दूरि तें कहि निज नामू।
कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा।
भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥
कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा।
भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥
निषादराज ने मुनिराज वसिष्ठजी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूरही से दण्डवत्
प्रणाम किया। मुनीश्वर वसिष्ठजी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और
भरतजी को समझाकर कहा [कि यह श्रीरामजीका मित्र है] ॥३॥
राम सखा सुनि संदनु त्यागा।
चले उतरि उमगत अनुरागा॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई।
कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।
चले उतरि उमगत अनुरागा॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई।
कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।
यह श्रीरामका मित्र है, इतना सुनते ही भरतजीने रथ त्याग दिया। वे रथसे उतरकर
प्रेममें उमँगते हुए चले। निषादराज गुहने अपना गाँव, जाति और नाम सुनाकर
पृथ्वीपर माथा टेककर जोहार की ॥४॥
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