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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदय समाइ॥१९३॥
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदय समाइ॥१९३॥
दण्डवत् करते देखकर भरतजीने उठाकर उसको छातीसे लगा लिया। हृदयमें प्रेम समाता
नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मणजीसे भेंट हो गयी हो॥१९३॥
भेटत भरतु ताहि अति प्रीती।
लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला।
सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥
लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला।
सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥
भरतजी गुहको अत्यन्त प्रेमसे गले लगा रहे हैं। प्रेमकी रीतिको सब लोग सिहा रहे
हैं (ईर्ष्यापूर्वक प्रशंसा कर रहे हैं), मङ्गलकी मूल 'धन्य-धन्य' की ध्वनि
करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं ॥१॥
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा।
जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता।
मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता।
मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
[वे कहते हैं-] जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकारसे नीचा माना जाता है, जिसकी
छायाके छू जानेसे भी स्नान करना होता है, उसी निषादसे अँकवार भरकर (हृदयसे
चिपटाकर) श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई भरतजी [आनन्द और प्रेमवश] शरीर में
पुलकावलीसे परिपूर्ण हो मिल रहे हैं ॥२॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं।
तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा।
कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।
तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा।
कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।
जो लोग राम-राम कहकर जंभाई लेते हैं (अर्थात् आलस्य से भी जिनके मुँह से रामनाम
का उच्चारण हो जाता है), पापों के समूह (कोई भी पाप) उनके सामने नहीं आते। फिर
इस गुह को तो स्वयं श्रीरामचन्द्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुलसमेत इसे
जगत्पावन (जगत् को पवित्र करनेवाला) बना दिया॥३॥
करमनास जलु सुरसरि परई।
तेहि को कहहु सीस नहिं धरई॥
उलटा नामु जपत जगु जाना।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना।
तेहि को कहहु सीस नहिं धरई॥
उलटा नामु जपत जगु जाना।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना।
कर्मनाशा नदीका जल गङ्गाजीमें पड़ जाता है (मिल जाता है), तब कहिये, उसे कौन
सिरपर धारण नहीं करता? जगत् जानता है कि उलटा नाम (मरा मरा)जपते-जपते
वाल्मीकिजी ब्रह्मके समान हो गये॥४॥
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