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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
स्वपच सबर खस जमन जड़ पावर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात ॥१९४॥
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात ॥१९४॥
मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात भी रामनाम कहते ही परम
पवित्र और त्रिभुवनमें विख्यात हो जाते हैं ॥१९४॥
नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई।
केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।
राम नाम महिमा सुर कहहीं।
सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं।
केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।
राम नाम महिमा सुर कहहीं।
सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग-युगान्तर से यही रीति चली आ रही है।
श्रीरघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी? इस प्रकार देवता रामनाम की महिमा कह रहे
हैं और उसे सुन-सुनकर अयोध्याके लोग सुख पा रहे हैं ॥१॥
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा।
पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।
देखि भरत कर सीलु सनेहू।
भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥
पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।
देखि भरत कर सीलु सनेहू।
भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥
रामसखा निषादराजसे प्रेमके साथ मिलकर भरतजीने कुशल, मङ्गल और क्षेम पूछी।
भरतजीका शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया (प्रेममुग्ध होकर देहकी
सुध भूल गया) ॥२॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा।
भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी।
बिनय सप्रेम करत कर जोरी।
भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी।
बिनय सप्रेम करत कर जोरी।
उसके मनमें संकोच, प्रेम और आनन्द इतना बढ़ गया कि वह खड़ा-खड़ा टकटकी लगाये
भरतजीको देखता रहा। फिर धीरज धरकर भरतजीके चरणोंकी वन्दना करके प्रेमले साथ हाथ
जोडकर विनती करने लगा ॥३॥
कुसल मूल पद पंकज पेखी।
मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें।
सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥
मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें।
सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥
हे प्रभो! कुशलके मूल आपके चरणकमलोंके दर्शन कर मैंने तीनों कालोंमें अपना कुशल
जान लिया। अब आपके परम अनुग्रहसे करोड़ों कुलों (पीढ़ियों) सहित मेरा मङ्गल
(कल्याण) हो गया ॥४॥
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