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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥१९५॥
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥१९५॥
मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की महिमा को मन में देख
(विचार) कर (अर्थात् कहाँ तो मैं नीच जाति और नीच कर्म करनेवाला जीव, और कहाँ
अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान् श्रीरामचन्द्रजी! पर उन्होंने
मुझ-जैसे नीच को भी अपनी अहैतु की कृपावश अपना लिया—यह समझकर) जो रघुवीर
श्रीरामजीके चरणोंका भजन नहीं करता, वह जगत् में विधाताके द्वारा ठगा गया
है॥१९५ ॥
कपटी कायर कुमति कुजाती।
लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें।
भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥
लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें।
भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥
मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूँ और लोक-वेद दोनोंसे सब प्रकारसे बाहर
हूँ। पर जबसे श्रीरामचन्द्रजीने मुझे अपनाया है, तभीसे मैं विश्वका भूषण हो गया
॥१॥
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई।
मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारी रानी॥
मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारी रानी॥
निषादराजकी प्रीतिको देखकर और सुन्दर विनय सुनकर फिर भरतजीके छोटे भाई
शत्रुघ्नजी उससे मिले। फिर निषादने अपना नाम ले-लेकर सुन्दर (नम्र और मधुर)
वाणीसे सब रानियोंको आदरपूर्वक जोहार की॥२॥
जानि लखन सम देहिं असीसा।
जिअहु सुखी सय लाख बरीसा॥
निरखि निषादु नगर नर नारी।
भए सुखी जनु लखनु निहारी॥
जिअहु सुखी सय लाख बरीसा॥
निरखि निषादु नगर नर नारी।
भए सुखी जनु लखनु निहारी॥
रानियाँ उसे लक्ष्मणजीके समान समझकर आशीर्वाद देती हैं कि तुम सौ लाख वर्षोंतक
सुखपूर्वक जिओ। नगरके स्त्री-पुरुष निषादको देखकर ऐसे सुखी हुए, मानो
लक्ष्मणजीको देख रहे हों॥३॥
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू।
भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई।
प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥
भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई।
प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥
सब कहते हैं कि जीवनका लाभ तो इसीने पाया है, जिसे कल्याणस्वरूप
श्रीरामचन्द्रजीने भुजाओंमें बाँधकर गले लगाया है। निषाद अपने भाग्यकी बड़ाई
सुनकर मनमें परम आनन्दित हो सबको अपने साथ लिवा ले चला ॥४॥
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