रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥१९६॥


उसने अपने सब सेवकों को इशारे से कह दिया। वे स्वामी का रुख पाकर चले और उन्होंने घरों में, वृक्षों के नीचे, तालाबों पर तथा बगीचों और जंगलों में ठहरने के लिये स्थान बना दिये॥१९६।।

संगबेरपुर भरत दीख जब।
भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू।
जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥


भरतजी ने जब शृङ्गवेरपुरको देखा, तब उनके सब अङ्ग प्रेमके कारण शिथिल हो गये। वे निषादको लाग दिये (अर्थात् उसके कंधेपर हाथ रखे चलते हुए) ऐसे शोभा दे रहे हैं, मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किये हुए हों।॥ १॥

एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा।
दीखि जाइ जग पावनि गंगा॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू।
भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥


इस प्रकार भरतजीने सब सेनाको साथमें लिये हुए जगत्को पवित्र करनेवाली गङ्गाजीके दर्शन किये। श्रीरामघाटको [जहाँ श्रीरामजीने स्नान-सन्ध्या की थी] प्रणाम किया। उनका मन इतना आनन्दमग्न हो गया, मानो उन्हें स्वयं श्रीरामजी मिल गये हों॥२॥

करहिं प्रनाम नगर नर नारी।
मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥
करि मजनु मागहिं कर जोरी।
रामचंद्र पद प्रीति न थोरी॥


नगरके नर-नारी प्रणाम कर रहे हैं और गङ्गाजीके ब्रह्मरूप जलको देख-देखकर आनन्दित हो रहे हैं। गङ्गाजीमें स्नानकर हाथ जोड़कर सब यही वर माँगते हैं कि श्रीरामचन्द्रजीके चरणों में हमारा प्रेम कम न हो (अर्थात् बहुत अधिक हो)॥३॥

भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू।
सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू।
सीय राम पद सहज सनेहू।

भरतजीने कहा-हे गङ्गे! आपकी रज सबको सुख देनेवाली तथा सेवकके लिये तो कामधेनु ही है। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान माँगता हूँ कि श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मेरा स्वाभाविक प्रेम हो॥४॥

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