रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 10
आईएसबीएन :

Like this Hindi book 0

भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥१९८॥


जहाँ पवित्र अशोकके वृक्षके नीचे श्रीरामजीने विश्राम किया था। भरतजीने वहाँ अत्यन्त प्रेमसे आदरपूर्वक दण्डवत्-प्रणाम किया ॥ १९८॥

कुस साँथरी निहारि सुहाई।
कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई।
बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥

कुशोंकी सुन्दर साथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजीके चरण-चिह्नोंकी रज आँखोंमें लगायी। [उस समयके] प्रेमकी अधिकता कहते नहीं बनती॥१॥

कनक बिंदु दुइ चारिक देखे।
राखे सीस सीय सम लेखे॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी।
कहत सखा सन बचन सुबानी॥


भरतजी ने दो-चार स्वर्णविन्दु (सोने के कण या तारे आदि जो सीताजी के गहने कपड़ोंसे गिर पड़े थे) देखे तो उनको सीताजी के समान समझकर सिरपर रख लिया। उनके नेत्र [प्रेमाश्रुके] जलसे भरे हैं और हृदयमें ग्लानि भरी है। वे सखा से सुन्दर वाणीमें ये वचन बोले- ॥२॥

श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना।
जथा अवध नर नारि बिलीना॥
पिता जनक देउँ पटतर केही।
करतल भोगु जोगु जग जेही॥


ये स्वर्णके कण या तारे भी सीताजीके विरहसे ऐसे श्रीहत (शोभाहीन) एवं कान्तिहीन हो रहे हैं, जैसे [रामवियोगमें] अयोध्याके नर-नारी विलीन (शोकके कारण क्षीण) हो रहे हैं। जिन सीताजीके पिता राजा जनक हैं, इस जगत्में भोग और योग दोनों ही जिनकी मुट्ठीमें हैं, उन जनकजीको मैं किसकी उपमा दूं? ॥३॥

ससुर भानुकुल भानु भुआलू।
जेहि सिहात अमरावतिपालू॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाईं।
जो बड़ होत सो राम बड़ाईं।


सूर्यकुलके सूर्य राजा दशरथजी जिनके ससुर हैं, जिनको अमरावतीके स्वामी इन्द्र भी सिहाते थे (ईर्ष्यापूर्वक उनके-जैसा ऐश्वर्य और प्रताप पाना चाहते थे); और प्रभु श्रीरघुनाथजी जिनके प्राणनाथ हैं, जो इतने बड़े हैं कि जो कोई भी बड़ा होता है, वह श्रीरामचन्द्रजीकी [दी हुई] बड़ाईसे ही होता है॥४॥

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book