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रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
सुखस्वरूप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥२००॥
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥२००॥
जो सुखस्वरूप रघुवंशशिरोमणि श्रीरामचन्द्रजी मङ्गल और आनन्दके भण्डार हैं, वे
पृथ्वीपर कुशा बिछाकर सोते हैं। विधाताकी गति बड़ी ही बलवान् है।। २००।।
राम सुना दुखु कान न काऊ।
जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती।
जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥
जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती।
जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥
श्रीरामचन्द्रजीने कानोंसे भी कभी दुःखका नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन
वृक्षकी तरह उनकी सार-सँभाल किया करते थे। सब माताएँ भी रात-दिन उनकी ऐसी
सार-सँभाल करती थीं, जैसे पलक नेत्रोंकी और साँप अपनी मणिकी करते हैं ॥१॥
ते अब फिरत बिपिन पदचारी।
कंद मूल फल फूल अहारी।।
धिग कैकई अमंगल मूला।
भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥
कंद मूल फल फूल अहारी।।
धिग कैकई अमंगल मूला।
भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥
वही श्रीरामचन्द्रजी अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कन्द-मूल तथा फल फूलों का
भोजन करते हैं। अमङ्गलकी मूल कैकेयी को धिक्कार है, जो अपने प्राणप्रियतम पति
से भी प्रतिकूल हो गयी ॥२॥
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी।
सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ।
साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।
सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ।
साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।
मुझ पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार है, जिसके कारण ये सब
उत्पात हुए। विधाताने मुझे कुलका कलंक बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे
स्वामिद्रोही बना दिया॥३॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू।
नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि।
यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि ॥
नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि।
यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि ॥
यह सुनकर निषादराज प्रेमपूर्वक समझाने लगा-हे नाथ! आप व्यर्थ विषाद किसलिये
करते हैं ? श्रीरामचन्द्रजी आपको प्यारे हैं और आप श्रीरामचन्द्रजीको प्यारे
हैं। यही निचोड़ (निश्चित सिद्धान्त) है, दोष तो प्रतिकूल विधाताको है॥४॥
छं०-बिधि बाम की करनी कठिन जेहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौंहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।
प्रतिकूल विधाताकी करनी बड़ी कठोर है, जिसने माता कैकेयी को बावली बना दिया
(उसकी मति फेर दी)। उस रात को प्रभु श्रीरामचन्द्रजी बार-बार आदरपूर्वक आपकी
बड़ी सराहना करते थे। तुलसीदासजी कहते हैं- [निषादराज कहता है कि--]
श्रीरामचन्द्रजीको आपके समान अतिशय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगंध खाकर कहता
हूँ। परिणाममें मङ्गल होगा, यह जानकर आप अपने हृदयमें धैर्य धारण कीजिये।
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