रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन ॥२१०॥


भरतजी का शरीर पुलकित है, हृदयमें श्रीसीतारामजी हैं और कमल के समान नेत्र [प्रेमाश्रुके] जलसे भरे हैं। वे मुनियों की मण्डली को प्रणाम करके गद्गद वचन बोले- ॥ २१०॥

मुनि समाजु अरु तीरथराजू।
साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई।
एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥


मुनियोंका समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खानेसे भी भरपूर हानि होती है। इस स्थानमें यदि कुछ बनाकर कहा जाय, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी ॥१॥

तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ।
उर अंतरजामी रघुराऊ।
मोहि न मातु करतब कर सोचू।
नहिं दुखु जिय जगु जानिहि पोचू॥


मैं सच्चे भावसे कहता हूँ। आप सर्वज्ञ हैं, और श्रीरघुनाथजी हृदयके भीतरकी जाननेवाले हैं (मैं कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता)। मुझे माता कैकेयीकी करनीका कुछ भी सोच नहीं है। और न मेरे मन में इसी बात का दुःख है कि जगत् मुझे नीच समझेगा॥२॥

नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू।
पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए।
लछिमन राम सरिस सुत पाए।


न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जायगा और न पिताजीके मरनेका ही मुझे शोक है। क्योंकि उनका सुन्दर पुण्य और सुयश विश्वभरमें सुशोभित है। उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मण-सरीखे पुत्र पाये॥३॥

राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू।
भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं।
करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥


फिर जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के विरहमें अपने क्षणभङ्गर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजाके लिये सोच करने का कौन प्रसंग है? [सोच इसी बातका है कि] श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी पैरोंमें बिना जूतीके मुनियोंका वेष बनाये वन-वनमें फिरते हैं ॥ ४॥

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