रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
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पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥२१२॥


इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीने उनका समाधान करके कहा-अब आपलोग हमारे प्रेमप्रिय अतिथि बनिये और कृपा करके कन्द-मूल, फल-फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिये ॥ २१२ ॥

सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू।
भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी।
चरन बंदि बोले कर जोरी॥


मुनि के वचन सुनकर भरतके हृदयमें सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पडा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्त्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर. चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर बोले- ॥१॥

सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा।
परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए।
सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥


हे नाथ! आपकी आज्ञाको सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया॥२॥

चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई।
कंद मूल फल आनहु जाई॥
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए।
प्रमुदित निज निज काज सिधाए।


[और कहा कि] भरत की पहुनई करनी चाहिये। जाकर कन्द, मूल और फल लाओ। उन्होंने 'हे नाथ! बहुत अच्छा' कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनन्दित होकर अपने-अपने कामको चल दिये॥३॥

मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता।
तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं।
आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥


मुनिको चिन्ता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिये। यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गयीं [और बोलीं-] हे गोसाईं ! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें॥४॥

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