रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
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पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥२१७॥


श्रीरामचन्द्रजी संकोची और प्रेमके वश हैं और भरतजी प्रेमके समुद्र हैं। बनी-बनायी बात बिगड़ना चाहती है, इसलिये कुछ छल ढूँढ़कर इसका उपाय कीजिये॥ २१७॥

बचन सुनत सुरगुरु मुसुकाने।
सहसनयन बिनु लोचन जाने।
मायापति सेवक सन माया।
करइ त उलटि परइ सुरराया॥


इन्द्रके वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पतिजी मुसकराये। उन्होंने हजार नेत्रोंवाले इन्द्रको [ज्ञानरूपी] नेत्रों से रहित (मूर्ख) समझा और कहा-हे देवराज! माया के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है ॥१॥

तब किछु कीन्ह राम रुख जानी।
अब कुचालि करि होइहि हानी॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ।
निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥

उस समय (पिछली बार) तो श्रीरामचन्द्रजीका रुख जानकर कुछ किया था। परन्तु इस समय कुचाल करनेसे हानि ही होगी। हे देवराज! श्रीरघुनाथजीका स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किये हुए अपराधसे कभी रुष्ट नहीं होते॥२॥

जो अपराधु भगत कर करई।
राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा।
यह महिमा जानहिं दुरबासा।।


पर जो कोई उनके भक्तका अपराध करता है, वह श्रीरामकी क्रोधाग्निमें जल जाता है। लोक और वेद दोनोंमें इतिहास (कथा) प्रसिद्ध है। इस महिमाको दुर्वासाजी जानते हैं ॥३॥ भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥ सारा जगत् श्रीरामको जपता है, वे श्रीरामजी जिनको जपते हैं उन भरतजीके समान श्रीरामचन्द्रजीका प्रेमी कौन होगा? ॥४॥

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