रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥२१८॥
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥२१८॥
हे देवराज ! रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके भक्तका काम बिगाड़नेकी बात मनमें
भी न लाइये। ऐसा करनेसे लोकमें अपयश और परलोकमें दुःख होगा और शोकका सामान
दिनोंदिन बढ़ता ही चला जायगा ॥ २१८॥
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा।
रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई।
सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥
रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई।
सेवक बैर बैरु अधिकाईं॥
हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। श्रीरामजीको अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने
सेवककी सेवासे सुख मानते हैं और सेवकके साथ वैर करनेसे बड़ा भारी वैर मानते हैं
॥१॥
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू।
गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।
करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥
गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।
करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥
यद्यपि वे सम हैं-उनमें न राग है, न रोष है। और न वे किसीका पाप-पुण्य और
गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्वमें कर्मको ही प्रधान कर रखा है। जो
जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है ॥२॥
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा।
भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगुन अलेप अमान एकरस।
रामु सगुन भए भगत पेम बस॥
भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगुन अलेप अमान एकरस।
रामु सगुन भए भगत पेम बस॥
तथापि वे भक्त और अभक्तके हृदयके अनुसार सम और विषम व्यवहार करते हैं (भक्तको
प्रेमसे गले लगा लेते हैं और अभक्तको मारकर तार देते हैं)। गुणरहित, निर्लेप,
मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्रीराम भक्तके प्रेमवश ही सगुण हुए हैं॥३॥
राम सदा सेवक रुचि राखी।
बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई।
करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥
बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई।
करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥
श्रीरामजी सदा अपने सेवकों (भक्तों) की रुचि रखते आये हैं। वेद, पुराण, साधु और
देवता इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदयमें जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजीके चरणोंमें
सुन्दर प्रीति करो॥४॥
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