रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :0
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत ते जनि डरपहु सुरपाल॥२१९।।

हे देवराज इन्द्र! श्रीरामचन्द्रजीके भक्त सदा दूसरोंके हितमें लगे रहते हैं, वे दूसरोंके दुःखसे दुःखी और दयालु होते हैं। फिर, भरतजी तो भक्तोंके शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो॥ २१९॥

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी।
भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू।
भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥

प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सत्यप्रतिज्ञ और देवताओं का हित करनेवाले हैं। और भरतजी श्रीरामजी की आज्ञा के अनुसार चलनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थक विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजीका कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है ॥१॥

सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी।
भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ।
लगे सराहन भरत सुभाऊ॥

देवगुरु बृहस्पतिजीकी श्रेष्ठ वाणी सुनकर इन्द्रके मनमें बड़ा आनन्द हुआ और उनकी चिन्ता मिट गयी। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजीके स्वभावकी सराहना करने लगे॥२॥

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