रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
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पुस्तक क्रमांक : 10
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड


दो०- बेगि बिलंबु न करिअ नृप, साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब, रामु होहिं जुबराजु॥४॥

हे राजन्! अब देर न कीजिये; शीघ्र सब सामान सजाइये। शुभ दिन और सुन्दर मङ्गल तभी है जब श्रीरामचन्द्रजी युवराज हो जायँ (अर्थात् उनके अभिषेक के लिये सभी दिन शुभ और मङ्गलमय हैं)॥४॥


मुदित महीपति मंदिर आए।
सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए।
भूप सुमंगल बचन सुनाए।


राजा आनन्दित होकर महल में आये और उन्होंने सेवकों को तथा मन्त्री सुमन्त्र को बुलवाया। उन लोगों ने 'जय-जीव' कहकर सिर नवाये। तब राजा ने सुन्दर मङ्गलमय वचन (श्रीरामजी को युवराज-पद देने का प्रस्ताव) सुनाये॥१॥


जौं पाँचहि मत लागै नीका।
करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥


[और कहा-] यदि पंचों को (आप सबको) यह मत अच्छा लगे, तो हृदय में हर्षित होकर आप लोग श्रीरामचन्द्र का राजतिलक कीजिये॥२॥


मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।
अभिमत बिरवें परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहिं कर जोरी।
जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥


इस प्रिय वाणीको सुनते ही मन्त्री ऐसे आनन्दित हुए मानो उनके मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो। मन्त्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत् पति! आप करोड़ों वर्ष जियें॥३॥


जग मंगल भल काजु बिचारा।
बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा।
बढ़त बौंड जनु लही सुसाखा॥


आपने जगत् भर का मङ्गल करनेवाला भला काम सोचा है। हे नाथ! शीघ्रता कीजिये, देर न लगाइये। मन्त्रियों की सुन्दर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनन्द हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुन्दर डाली का सहारा पा गयी हो॥४॥

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