रामायण >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- ध्वज पताक तोरन कलस, सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु, निज निज काजहिं लाग॥६॥
सिर धरि मुनिबर बचन सबु, निज निज काजहिं लाग॥६॥
ध्वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़े, रथ और हाथी सबको सजाओ।
मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी के वचनों को शिरोधार्य करके सब लोग अपने-अपने काम में
लग गये॥६॥
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा।
सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा।
करत राम हित मंगल काजा॥
सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा।
करत राम हित मंगल काजा॥
मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिये आज्ञा दी, उसने वह काम [इतनी
शीघ्रता से कर डाला कि] मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ब्राह्मण, साधु और
देवताओंको पूज रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजीके लिये सब मङ्गलकार्य कर रहे
हैं॥१॥
सुनत राम अभिषेक सुहावा।
बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए।
फरकहिं मंगल अंग सुहाए।
बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए।
फरकहिं मंगल अंग सुहाए।
श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक की सुहावनी खबर सुनते ही अवध भर
में बड़ी धूम से बधावे बजने लगे। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के शरीर में भी
शुभ शकुन सूचित हुए। उनके सुन्दर मङ्गल अङ्ग फड़कने लगे॥२॥
पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं।
भरत आगमनु सूचक अहहीं।
भए बहुत दिन अति अवसेरी।
सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
भरत आगमनु सूचक अहहीं।
भए बहुत दिन अति अवसेरी।
सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥
पुलकित होकर वे दोनों प्रेमसहित एक-दूसरे से कहते हैं कि ये सब
शकुन भरत के आने की सूचना देनेवाले हैं। [उनको मामा के घर गये] बहुत दिन हो
गये; बहुत ही अवसेर आ रही है (बार-बार उनसे मिलने की मन में आती है) शकुनोंसे
प्रिय (भरत)-के मिलने का विश्वास होता है॥३॥
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं।
इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती।
अंडन्हि कमठ हृदउ जेहि भाँती॥
इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती।
अंडन्हि कमठ हृदउ जेहि भाँती॥
और भरतके समान जगत् में [हमें] कौन प्यारा है! शकुन का बस, यही
फल है, दूसरा नहीं। श्रीरामचन्द्रजीको [अपने] भाई भरत का दिन-रात ऐसा सोच
रहता है जैसा कछुए का हृदय अंडों में रहता है॥ ४॥
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