वेदान्त >> वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :602
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7
आईएसबीएन :1234567890

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स्वामी जी द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन में वेदान्त पर दिये गये व्याख्यान

इनके लेखकों ने इन पंक्तियों को, कुछ ऐसे तथ्यों को स्मरण रखने में सहायता देने के निमित्त लिख लिया है, जो उनकी समझ में सभी को ज्ञात थे। इससे एक बड़ी कठिनाई यह होती है कि हम उपनिषदों की किसी भी कथा का वास्तविक तात्पर्य मुश्किल से ग्रहण कर पाते हैं, क्योंकि परम्परा लगभग नष्ट हो चुकी है, और जो थोड़ी सी अवशिष्ट है, वह बड़ी अतिरंजित रूप में है। उनकी अनेक नयी-नयी व्याख्याएँ की गयी हैं, यहाँ तक कि जब हम उनको पुराणों में पढ़ते हैं, तो देखते हैं कि वे गीति-काव्य बन गयी है।

जिस प्रकार पाश्चात्य देशों में, पाश्चात्य जातियों के राजनीतिक विकास के सम्बन्ध में हम यह महत्त्वपूर्ण सत्य पाते हैं कि वे किसी का निरंकुश शासन नहीं सहन कर सकतीं, किसी एक मनुष्य के द्वारा अपने ऊपर शासन होने का वे सतत विरोध करती रही हैं, और जन तन्त्र-प्रणाली एवं शारीरिक स्वाधीनता की उत्तरोत्तर उच्च धारणाओं की ओर बढ़ रही हैं, उसी प्रकार भारतीय दर्शन में भी, आध्यात्मिक जीवन के विकास में ठीक वही बात घटती है। अनेक देवताओं का स्थान एक ईश्वर ने लिया, और उपनिषदों में तो इस एक ईश्वर के विरुद्ध भी विद्रोह हुआ है। इस जगत् के अनेक शासनकर्ता उनके भाग्य को नियन्त्रित कर रहे हैं, केवल यही धारणा उन्हें असह्य नहीं हुई, बल्कि कोई एक व्यक्ति भी इस विश्व का शासक हो- यह धारणा भी उन्हें सह्य न हो सकी। यही बात सब से पहले हमारे सामने आती है। यह धारणा धीरे-धीरे विकसित होती हई अन्त में अपनी चरम परिणति पर पहुँचती है। प्रायः सभी उपनिषदों में अन्त में हम यही परिणति पाते हैं और वह है –विश्व के ईश्वर को सिंहासन-च्युत करना। ईश्वर की सगुणता विलीन हो जाती है और निर्गुण धारणा उपस्थित होती है। तब ईश्वर एक व्यक्ति अथवा एक अनन्तगुण-सम्पन्न मानव के रूप में जगत् का शासक नहीं रह जाता, प्रत्युत वह भूतमात्र में, विश्व भर में, व्याप्त एक तत्त्व मात्र रह जाता है। ईश्वर की सगुण धारणा से निर्गुण धारणा में पहुंचने पर, तब मनुष्य का सगुण– व्यक्ति–रह जाना तर्क की दृष्टि से असंगत होता। अतएव सगुण मनुष्य भी उड़ गया- मनुष्य भी एक तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। (अर्थात् सगुण बुद्धि यह जान जाती है कि स्वयं उसकी उत्पत्ति और आधार उससे अधिक स्थायी सत्ता अर्थात् चेतना में है और इस चेतना का अनुभव बौद्धिक न होकर स्वयं अपनी अनुभूत चेतना से ही हो पाता है) सगुण व्यक्ति केवल एक गोचर बाह्य तथ्य है, प्रकृत तत्त्व उसके अन्तर्देश में है। इस तरह दोनों ओर से क्रमशः सगुणत्व चला जाता है और निर्गुणत्व का आविर्भाव होता रहता है। सगुण ईश्वर की क्रमशः निर्गुण धारणा हो जाती है और सगुण मनुष्य का भी निर्गुण भाव आ जाता है। तब निर्गुण ईश्वर और निर्गुण मनुष्य की इन दो आगे बढ़ती धाराओं के क्रमिक मिलन की क्रमागत अवस्थाएं आती हैं। ये दो धाराएँ जिन अवस्थाओं को पार करके अन्ततः मिल जाती हैं, उनके वर्णन उपनिषदों में संगृहीत हैं , एवं प्रत्येक उपनिषद् की अन्तिम बात है- 'तत्त्वमसि'नित्य-आनन्दमय तत्त्व एक ही है, और वही एक इस जगत् रूप में अनेक प्रकार से प्रकाशित हुआ है।

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