वेदान्त >> वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :602
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7
आईएसबीएन :1234567890

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स्वामी जी द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन में वेदान्त पर दिये गये व्याख्यान

फिर ऐसे भी दार्शनिक हैं, जो मायावाद तो स्वीकार नहीं करते, पर जिनकी स्थिति मध्य में है। वे कहते हैं कि यह समस्त ब्रह्माण्ड ईश्वर के शरीर जैसा है। ईश्वर सभी आत्माओं की आत्मा और विश्व की आत्मा है, जीवात्माओं का संकोचन असत्-कर्मों से होता है। प्रत्येक जीवात्मा के इस संकोच का कारण है, जब मनुष्य कुछ असत्-कर्म करता है तो उसकी आत्मा संकुचित होने लगती है, और उसकी शक्ति तब तक घटती जाती है, जब तक कि वह फिर से सत्कर्म आरम्भ नहीं करता। तब पुनः उसका विकास होने लगता है। सभी भारतीय मतों में, और मेरे विचार में, संसार के सभी मतों में एक सर्वसाधारण भाव दिखाई देता है - चाहे वे उसे जानते हों या न जानते हों - और उसे मैं 'मनुष्य का देवत्व' या ईश्वरत्व कहना चाहता हूँ। संसार में ऐसा कोई मत नहीं है, यथार्थ धर्म नाम के योग्य ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो किसी न किसी तरह, चाहे पौराणिक या रूपक-भाव से हो अथवा दर्शनों की परिमार्जित स्पष्ट भाषा में, यह भाव प्रकाशित न करता हो कि जीवात्मा चाहे जो हो, ईश्वर के साथ उसका चाहे जो सम्बन्ध हो, पर स्वरूपतः वह शुद्धस्वभाव एवं पूर्ण है। पूर्णानन्द और शक्ति ही उसका स्वभाव है, दुःख या दुर्बलता नहीं। यह दुःख किसी तरह उसमें आ गया है। अमार्जित मत इसे मूर्तिमान् अशुभ, शैतान या अर्हिमन नाम देकर अशुभ के अस्तित्व की व्याख्या करते हैं। कुछ मतों में एक ही आधार में ईश्वर और शैतान दोनों का भाव आरोपित किया जाता है, जो अकारण ही चाहे जिसे सुखी या दुःखी करता है। फिर कुछ अधिक चिन्तनशील व्यक्ति मायावाद आदि के द्वारा अशुभ की व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु एक बात सभी मतों में अत्यन्त स्पष्ट है और वही हमारा प्रास्ताविक विषय है। ये समस्त दार्शनिक मत और प्रणालियाँ अन्ततः केवल मन के व्यायाम और बुद्धि की कसरत हैं। जो एक महान् उज्ज्वल भाव मुझे प्रत्येक देश और प्रत्येक धर्म के अन्धविश्वासों के बीच स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है, वह यह है कि मनुष्य दिव्य है, यह दिव्यता ही हमारा स्वरूप है।

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