वेदान्त >> वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान वेदान्त पर स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानस्वामी विवेकानन्द
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स्वामी जी द्वारा अमेरिका और ब्रिटेन में वेदान्त पर दिये गये व्याख्यान
अब, यह एक बहुत कठिन कार्य मालूम पड़ता है, बहुतों के लिए तो यह बड़ा विस्मयजनक है, पर अन्धविश्वास के सिवा इसका और दूसरा कोई कारण नहीं। सभी प्रकार के कुखाद्य और दुष्पाच्य अन्न खाकर अथवा निरन्तर उपवास करके हमने अपने को सुखाद्य के अनुपयुक्त बना रखा है। हमने बचपन से ही दुर्बलता की बातें सुनी हैं। लोग कहते हैं कि मैं भूत-बूत नहीं मानता, पर ऐसे बहुत कम लोग मिलेंगे, जिनका शरीर अँधेरे में थोड़ा सिहर न उठे। यह केवल अन्धविश्वास है। इसी प्रकार यही बात सभी धार्मिक अन्धविश्वासों के सम्बन्ध में है। इस देश (इंग्लैन्ड) में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिनसे मैं यदि कहूँ कि 'शैतान' नामक कुछ भी नहीं है, तो वे समझेंगे कि धर्म का सत्यानाश हो गया। मुझसे कई लोगों ने कहा है, 'शैतान के न रहने से धर्म किस तरह कायम रह सकता है?' हम पर अकुंश लगानेवाला कोई न रहे, तो धर्म कैसा? बिना किसी के द्वारा शासित हुए हम कैसे रह सकते हैं? सच बात तो यह है कि हम इसके अभ्यस्त हो गये हैं। हमें जब तक यह अनुभव नहीं होता कि कोई हम पर रोज हुकूमत चला रहा है, हमें चैन नहीं पड़ता। वही अन्धविश्वास है। वही कुसंस्कार है। पर इस समय यह कितना भी भीषण क्यों न प्रतीत होता हो, एक समय ऐसा अवश्य आएगा, जब हममें से प्रत्येक अतीत की ओर नजर डालेगा और उन अन्धविश्वासों पर हँसेगा, जो शुद्ध और नित्य आत्मा को ढाँके हुए थे, एवं मुदित मन से सत्यता और दृढ़ता के साथ बारम्बार कहेगा, “मैं 'वही' हूँ, चिरकाल 'वही' था और सदैव 'वही' रहूँगा।" यह अद्वैत-भाव हमें वेदान्त से मिलेगा और यही एक भाव है, जो टिकने के योग्य है। शास्त्रग्रन्थ चाहे तो कल ही नष्ट हो जा सकते हैं, यह तत्त्व सब से पहले चाहे हिंदुओं के मस्तिष्क में उदित हुआ हो, चाहे उत्तरी ध्रुववासियों के मस्तिष्क में, पर इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। कारण, यही सत्य है, और जो सत्य है, वह सनातन है, तथा सत्य ही यह शिक्षा देता है कि वह किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं है। मनुष्य, पशु, देवता सभी इस सत्य के अधिकारी हैं। उन्हें यही सिखाओ! जीवन को दुःखमय बनाने की क्या आवश्यकता? लोगों को अनेक प्रकार के अन्धविश्वासों में क्यों पड़ने दो? केवल यहीं (इंग्लैन्ड में) नहीं, वरन् इस तत्त्व की जन्मभूमि में भी यदि तुम इस तत्त्व का उपदेश करो, तो वहाँ के लोग भी भयभीत हो उठेंगे। कहेंगे- "ये बातें तो संन्यासियों के लिए हैं, जो संसार को त्यागकर जंगल में रहते हैं। पर हम लोग तो सामान्य गृहस्थ हैं , धर्मकार्य के लिए हमें किसी न किसी प्रकार के भय या क्रियाकाण्ड की आवश्यकता रहती ही है'', इत्यादि।
द्वैतवाद ने संसार पर बहुत दिनों तक शासन किया है, और यह उसी का फल है। तो आज हम नया प्रयोग क्यों न आरम्भ करें? सम्भव है, सभी मनुष्यों को इस अद्वैत-तत्त्व की धारणा करने में लाखों वर्ष लग जाएँ, पर इसी समय से क्यों न आरम्भ कर दें? यदि हम अपने जीवन में बीस मनुष्यों को भी यह बात बतला सकें, तो समझो कि हमने बहुत बड़ा काम किया।
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